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होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है

‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है। इसीलिये उसकी सीमाएँ हैं। प्रेमचंद और गोदान के बारे में कुछ कहने का न यह समय है और न उतना स्थान ही है। इतना कहना पर्याप्त होगा कि गोदान जन-जीवन के साहित्यकार प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसमें उन्होंने अभावग्रस्त भारतीय किसान की जीवन-गाथा का चित्र उपस्थित किया है। देहात की वास्तविक दशा का खाका खींचा है। इसमें हमारे ग्रामीण-जीवन की आशा-निराशा, सरलता-कुटिलता, प्रेम-घृणा, गुण-दोष सभी का मनोहारी चित्रण हुआ है। उपन्यास में एक दूसरी धारा भी है। वह है नगर सभ्यता की धारा जो ग्रामीण-जीवन के विरोध में उभरी है। प्रस्तुत रूपान्तर में उसे बिलकुल छोड़ देना पड़ा है। उसका कारण नाटक की सीमाएँ हैं।

उपन्यास पढ़ा जाता है लेकिन नाटक खेला जाता है। यूँ पढ़ने को भी नाटक लिखे जाते हैं और हिन्दी के अधिकांश नाटक अभी ऐसे ही हैं पर नाटक दृश्य या श्रव्य काव्य है। उसकी कथा रंगमंच के लिये है और रंगमंच पर ऐसी अनेक बातें हैं जो नहीं होनी चाहिये या कही नहीं जा सकतीं। इसके अतिरिक्त हिन्दी रंगमंच अभी शैशवावस्था में है। शिशु का योगदान कम नहीं है पर उसके सामर्थ्य की एक सीमा है। इन्हीं सब कारणों से गोदान की नगर सभ्यता ‘होरी’ में बिलकुल ही नहीं आ पाई है। उसका न आना अखरा भी नहीं है क्योंकि अन्ततः प्रेमचंद का उद्देश्य होरी की सृष्टि करना ही था। ‘होरी’ में उनका वही अमर मात्र अपनी सम्पूर्ण दुर्बलताओं और विशेषताओं के साथ उपस्थित है। वह भारतीय किसान का प्रतिरूप है। वह भारतीय किसान है।

होरी

अंक एक

पहला दृश्य

[रंगमंच पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव का दृश्य। इधर-उधर घरों के द्वार, बीच में एक मार्ग। दायें-बायें भी मार्ग रहे। बायीं ओर एक कच्चा घर है जो होरी का है। बाहरी दीवार-चलती-फिरती है। आवश्यकता पड़ने पर उसे हटा कर अन्दर का दृश्य दिखाया जा सकता है। इस दृश्य में होरी के घर का द्वार दिखायी देता है। सामने मार्ग जा रहा है। पर्दा उठने पर होरी और धनिया, बातें करते अपने घर से बाहर आते हैं। धनिया वैसे तो छत्तीसवें में है पर देखने में बुढ़िया लगती है। बाल पक गये हैं। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं। देह ढल गयी है। सुन्दर गेहुँआ रंग साँवला पड़ने लगा है। आँखों से भी कम सूझता है। होरी की उमर भी चालीस से कम है पर देखने में वह भी बूढा लगता है। गहरा साँवला रंग, पिचके गाल, सूखा बदन, सिर पर पगड़ी लपेटे, कन्धे पर लाठी रखे बोलता आता है।]

होरी— तो क्या तू समझती है कि मैं बूढ़ा हो गया ! अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।

धनिया— जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे ! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान, यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार भीख माँगेंगे?

होरी— (सहसा शून्य में ताक कर) नहीं धनिया, सूखने की जरूरत नहीं। साठे तक पहुँचने की नौबत ही न आने पावेगी। इसके पहले ही चल देंगे।

धनिया— (तिरस्कार से) अच्छा रहने दो, मत अशुभ मुँह से निकालो ! तुमसे तो कोई अच्छी बात भी कहे तो लगते हो कोसने।

[होरी मुस्कराकर चल देता है। धनिया कई क्षण उसे देखती खड़ी रहती है, ऐसे जैसे अन्तःकरण से आशीर्वाद का व्यूह-सा निकल कर होरी को अन्दर छिपाये लेता हो। होरी रंगमंच से बाहर होने से पहले मुड़ कर देखता है, मुस्कराता है, फिर बाहर हो जाता है। धनिया भी निश्वास लेकर अन्दर जाती है। घर की दीवार पीछे हट जाती है और मंच पर बस मार्ग-ही-मार्ग रह जाता है। होरी दूसरी ओर से मंच पर प्रवेश करता है। पीछे मुड़-मुड़कर देखता है और बोलता है ! ]

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