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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…

प्रेमचन्द का यह उपन्यास ‘‘निर्मला’’ छोटा होते हुए भी उनके प्रमुख उपन्यासों में गिना जाता है। इसका प्रकाशन आज से लगभग 90 साल पहले 1925 में हुआ था। इस उपन्यास में उन्होंने दहेज प्रथा तथा बेमेल विवाह की समस्या उठाई है और बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय हिन्दू समाज के जीवन का बड़ा यथार्थवादी मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। उनके अन्य उपन्यास निम्नवर्गीय तथा ग्रामीण कृषक जीवन का चित्रण करते हैं तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता तथा समानता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत करते हैं। इस श्रेणी में गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवासदन, प्रेमाश्रम आदि उपन्यास आते हैं जो सब गांधी विचारधारा से प्रभावित आदर्शवादी तथा आम जनता के जीवन से संबंधित है।

गबन भी निर्मला की ही भाँति स्त्रियों की समस्या पर है परन्तु यह एक अन्य समस्या-स्त्रियों के आभूषण प्रेम की समस्या प्रस्तुत करता है।

निर्मला

यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भांजा था, कोई भतीजी, लेकिन यहाँ हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं। वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कर्तव्य ही था। हमारा सम्बन्ध तो केवल उनकी दो कन्याओं से है, जिनमें से बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का नाम कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुड़िया खेलती थीं। निर्मला का पन्द्रहवाँ साल था, कृष्णा का दसवाँ, फिर भी उनके स्वाभाव में कोई विशेष अन्तर न था।

दोनों चंचल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़िया का धूमधाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं। माँ पुकारती रहती थी पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिये बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डाँटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं। पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है। कृष्णा वही है, पर निर्मला बड़ी गंभीर, एकान्त-प्रिय और लज्जाशील हो गई है।

इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिनहा के ज्येष्ठ पुत्र भुवन मोहन सिनहा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आपकी खुशी हो दहेज दें या न दें मुझे इसकी परवाह नहीं है; हाँ, बारात में जो लोग जायँ उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चाहिए, जिसमें मेरी और आपकी जगहँसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं तो मानों उन्हें आँखें मिल गईं। डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो तीन महाजनों को ठीक कर रखा था। उसका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे। यह आश्वसन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाये।

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