लोगों की राय

कविता संग्रह >> पीढ़ी का दर्द

पीढ़ी का दर्द

सुबोध श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9597

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

185 पाठक हैं

संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।

अपनी बात

 

मुझे पता नहीं कि मेरे काव्य-संग्रह की कवितायें किस सीमा तक अपनी सार्थकता सिद्ध करने में सफल होंगी किन्तु इतना विश्वास है कि मैंने जो कुछ लिखा है उसका कोई न कोई अंश सुधी पाठकों के मर्म को अवश्य स्पर्श करेगा। अपनी कविताओं में मैंने कोई चमत्कार उत्पन्न नहीं किया है। बस, वही कुछ उतारने की कोशिश की है, जो भीड़ के बीच अकेलेपन का एहसास ओढ़े हुए इत्ती सी ज़िन्दगी में जिया ! यदि किसी कविता विशेष से कोई चमत्कृत हो जाए तो यह मेरा सौभाग्य होगा और मैं अपनी लेखनी को धन्य मानूँगा। मेरी कविताओं में पाठकों को वही मिलेगा जिन हालातों से उन्हें प्रतिदिन, प्रतिपल दो चार होना पड़ता है।

कविता दिशाबोधक होती है। वह भविष्य का मार्ग प्रशस्त करती है। काव्य के इस सत्य के साथ जीवन की रागात्मक चेतना सम्प्रक्त होती है। संवेदना उसे दुलराती है और रचयिता का व्यक्तित्व उसे कंधे पर बिठाये घूमता है। 'पीढ़ी के दर्द' के पीछे यही सोच मार्गदर्शक बना रहा।

मुझे अनेक स्वनामधन्य वरिष्ठ कवियों का आशीर्वाद प्राप्त है, उन्हीं की मंगलकामनाओं का प्रतिफल है 'पीढ़ी का दर्द'

- सुबोध श्रीवास्तव

चार अप्रैल/1994

कानपुर।

 

 

कवि और कविता

श्री सुबोध श्रीवास्तव द्वारा रचित 'पीढ़ी का दर्द' काव्य संग्रह पढ़ा। संग्रह की रचनाओं ने मुझे भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श किया कि जब तक मैंने इसकी आखिरी कविता नहीं पढ़ ली, तब तक मैं इसे अपने से अलग नहीं कर सका। किसी की रचनाओं में किसी सहृदय पाठक का मन इतना डूब जाए कि वो उसे पढ़ने के लिए विवश हो जाए, इसे मैं किसी भी रचनाकार की बहुत बड़ी सफलता मानता हूं।

सुबोध की यह उपलब्धि रेखांकित करने योग्य है। कुछ कर सकने की ललक और फिर कुछ न कर पाने की मजबूरी, इन दो सूत्रों के बीच इस संग्रह की रचनाएं घूमती हैं इसलिए इनमें कहीं आक्रोश, कहीं विवशता, कहीं पीड़ा, कहीं कुंठा, कहीं संत्रास, कहीं आशा, कहीं हताशा, मन की अनेक वृत्तियां शब्दायित हुई हैं। यद्यपि सुबोध का यह प्रथम काव्य संग्रह है लेकिन उनके  'सोच' और शिल्प के नयेपन को देखकर लगता है कि जैसे यह किसी सिद्धहस्त लेखनी की अभिव्यक्ति हो।

मैं इस संग्रह के प्रकाशन पर सुबोध को इस कारण भी बधाई देता हूं कि आज के अनेक नए रचनाकारों के बीच उन्होंने अपने लिए बिलकुल नया रास्ता चुना है। मुझे विश्वास है कि इस संग्रह को हिन्दी साहित्य जगत में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त होगा।

- पद्मश्री गोपाल दास 'नीरज'

 

0 0 0

'पीढ़ी का दर्द' आद्यन्त पढ़ा। कविता के लिए ऐसी लघु कविता भूमिका के रूप में डा.यतीन्द्र तिवारी का 'कवि और कविता' शीर्षक वक्तव्य सब कुछ कवि सुबोध श्रीवास्तव के इस प्रथम काव्य संग्रह को गौरवान्वित करता हुआ लगा। कविताओं में सबसे पहले मैंने 'खबरची' पढ़ी। बाद में 'तुम्हारे नाम' की सभी कविताएं। दूसरे दौर में 'त्रासदी' और 'चीख' जैसी सभी कविताएं क्रमश: पढ़ ली। मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। संवेदनशीलता और शब्दों के भीतर बैठने की प्रवृत्ति तथा जिजीविषा की संघर्षपूर्ण प्रतीति से आश्वस्त हुआ। 'दर्द' कविता का शीर्षक 'कवच' होता तो बेहतर रहता। 'अनाम होता बच्चा', 'अस्पताल' और परिवेश से सम्बद्ध इस कृति की अनेक रचनाएं स्मरणीय हैं। कुल मिलाकर सुबोध का यह पहला संग्रह उन्हें यशस्वी बनायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

- डॉ.जगदीश गुप्त

0 0 0

 

श्री सुबोध श्रीवास्तव का कविता संग्रह 'पीढ़ी का दर्द' पढ़ा। अद्भुत कविताएं हैं इस संग्रह की। सीधी,सहज और सुई सी चुभती हुई। रंग जी की एक पंक्ति है..'हमने जो भोगा सो गाया'। इन रचनाओं में भी यही प्रक्रिया है,इसी से ये भी सीधी प्राणों में उतरती हैं। चारों ओर फैला,पसरा असहाय समाज और कैमरे के लेंस सी कवि की दृष्टि। 'तुम्हारे नाम' अंश तो जैसे तरल-तरल प्रेम गीतों के पद टूट-टूट कर बिखर गए हों। मेरी अशेष शुभकामनाएं, बधाई!

- भारत भूषण

(वरिष्ठ गीतकार)

आज कविता, परम्परागत काव्यशास्त्रीय दायरों में बंधकर मध्ययुगीन या छायावादी काव्यादर्शों के अनुरूप नहीं लिखी जा रही है। वह आदमी को महज आदमी बनाये रखने के लिए सम्वेदनात्मक सम्वाद के रूप में प्रस्तुत हो रही है। आज कविता, आदमी में देवत्व की प्रतिष्ठा करने की पक्षधर नहीं है, वह आदमी को जीवन की उन प्रक्रियाओं से जोड़ने का प्रयास करती है जहाँ से गुजर कर एक आम आदमी, आदमी होने का एहसास करता है। श्री सुबोध श्रीवास्तव की रचनायें ऐसी ही तमाम उन प्रक्रियाओं से गुजर कर हुए एहसास का सम्वेदनात्मक सम्वाद है, जहाँ सामान्यजन अपने होने की अनुभूति करके स्वयं की सहभागिता दर्ज करता है।

'पीढ़ी का दर्द' संकलन की रचनायें समाज की पारम्परिक जटिलताओं, अंधविश्वासों, अन्तर्विरोधों और असंगतियों में भटकते हुए मनुष्य की मानवीय धरातल पर एक रोशनी की तलाश है-

तुम

अपनी कमज़ोर पीठ पर

पहाड़ सा बोझ

ढोते रहो

मगर

उफ़

बिलकुल न करना

मेरे दोस्त!

तुम, दर्द से छटपटाना

मगर

भूलकर भी

कराहना मत।

एक अजब सी बेबसी का एहसास कराती सुबोध की कविता, छायावादोत्तर हिन्दी कबिता की दलीय दृष्टिवादी कविता, फ्रायड की मनोविश्लेषणवादी कविता, मूल्य दृष्टिप्रधान भावनावादी कविता, अविचारवादी अकविता, तथा जिसकी विद्रोहवादी प्रवृत्ति के विरुद्ध स्थापित हुई प्रतिबद्ध कविता आदि अल्पकालीन काव्यान्दोलनों की तरह कोई काव्यान्दोलन तो नहीं है और न ही इन पूर्ववर्त्ती काव्यान्दोलनों का अंग ही है परन्तु वह आदमी की नियति उसके सोच, व्यवहार, आशा-निराशा, तथा आह्लाद और विषाद से गहरा सरोकार रखती है। वस्तुत: सुबोध की कविता आम आदमी की मात्र हमदर्द नहीं वरन् सहयात्री भी है-

दर्द से बिलबिलाते

मरियल आदमी का

हाल बताने के लिए

डाक्टर का दरबाजा

खटखटाने पर

डांट खाते तीमारदार।

इस सहयात्रा में उद्‌भूत विचार ही उनकी रचनाप्रक्रिया को नियंत्रित करता है तथा उनकी भाषा, बिम्ब, एवं प्रतीक योजना भी इन्हीं उद्‌भूत विचारों के अनुरूप ही निर्धारित होती है।

श्री सुबोध की कविताओं में पूर्व निर्धारित धारणाओं और विचार परम्पराओं का आरोपण नहीं है। वरन् वह प्रत्यक्षानुभूति पर बल देती है। रोजमर्रा की बीत रही ज़िन्दगी उन्हें यंत्रचालित सी लगती है-

आजकल

कुछ अनमना सा है

सूरज

रोज उठता है अंधेरे मुँह

यंत्रचालित सा

नापने

रोशनी से अँधेरे तक का फासला।

'पीढ़ी का दर्द' की रचनाओं में यथार्थ और सम्भावनाओं का सुन्दर संयोजन हुआ है। आज कविता पर दुर्बोध एवं जटिल होने का आरोप लगाया जाता है। यह भी कहा जाता है अपनी शिल्पगत जटिलताओं के कारण आज कविता आम पाठक से दूर हो गई है किन्तु सुबोध की कवितायें इन आरोपों के प्रतिपक्ष खड़ी रचनायें हैं। उनकी रचनायें सहज बोध और समूह-सम्वेदना की रचनायें हैं। पत्रकार होने के नाते सुबोध की सामाजिक सहभागिता किसी न किसी रूप में अधिक है। उनकी यह सामाजिक सहभागिता का परिणाम उनकी कविताओं .में नव्यतम्-बोध के रूप में देखने को मिलता है। वस्तुतः उनकी रचनायें व्यक्ति और समाज दोनों की सम्वेदनाओं, परिवेशजन्य दबावों एवं परिस्थितिजन्य तनावों का सार्थक साक्षात्कार है। जो उनके युग-जीवन के गहरे सरोकारों, के साथ जुड़े होने को भी प्रमाणित करता है।

मुझे विश्वास है हिन्दी जगत में इस कृति का भरपूर स्वागत होगा।

- डा० यतीन्द्र तिवारी

काव्य संग्रह ‘पीढ़ी का दर्द' पढ़ा। कवि में काव्य संरचना की विशिष्ट-सामर्थ्य है। संग्रह की रचनाओं में सूरज का बिम्ब बहुत आकर्षित करता है।

शुभकामनाओं सहित-

- गिरिराज किशोर

0 0 0

 

 ‘पीढ़ी का दर्द’ नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर सुबोध का पहला संग्रह है जिसमें सामाजिक संवेदना को वाणी प्रदान की गई है। संग्रह में ऐसी कविताओं का बाहुल्य है, जो केवल एक पीढ़ी का दर्द ही नहीं, वरन् अनेक पीढ़ियों के दर्द की स्पष्ट तस्वीर हमारे सामने रखती हैं।

                            -कृष्णानन्द चौबे

0 0 0

 

इस संग्रह की रचनाएं जीवन से सीधी जुड़ी हुई हैं। शिल्प और प्रतीकों का संयोजन भी इन्हें पठनीय बना देता है। इन्हें पढ़कर कवि श्री सुबोध श्रीवास्तव से और भी अच्छा काव्य लिखने की आशाएं हैं।

- डा. गिरिजा शंकर त्रिवेदी

 

 

अनुक्रम

अपनी बात   4

कवि और कविता    6

पीढ़ी का दर्द  18

लाल किला    19

चीख़ना मना है ! 21

हवा गवाह है  24

भूकंप   26

धर्म   28

कर्फ्यू     30

त्रासदी   32

बापू से   33

बदला मौसम   35

सूरज का दर्द  37

ओ आदमी ! 39

चीख़   41

मेरा इरादा नहीं है  43

तुमने कहा   46

करता रहूँगा इन्तज़ार  48

कालचक्र   51

दृष्टिकोण   53

सलाह  55

मजदूर सा सूरज   56

सिलसिला    59

कठपुतलियां    61

चाहत   63

अनाम होता बच्चा      65

अस्पताल   68

आदमियत   71

यथार्थ   73

एहसास   74

हँसो    75

शिल्पकार  76

खबरची    78

शहर  80

लहरें पुकारती हैं ! 82

पहाड़  85

अनाम देवता से   86

कविता के लिए   88

दर्द अपना    89

वक्त आदमी नहीं   91

खण्डहर सा मैं   92

पीढ़ी का दर्द  93

दर्द  95

ज़िन्दगी    96

भविष्य     97

भोगा हुआ यथार्थ   98

तुम्हारे नाम   100

तुम   101

इजाज़त दो, तो... 102

तुम, मेरे लिए   103

मकसद  104

तुम्हारे नाम   105

तुम्हारा सामीप्य     107

वसुन्धरा   109

याद  111

तटबंध   112

अलग बात है ! 114

मन की कह लें   116

सुबोध श्रीवास्तव   117

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book