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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा

शरतचन्द्र के उपन्यासों में जिस रचना को सब से अधिक लोकप्रियता मिली है वह है देवदास। तालसोनापुर गाँव के देवदास और पार्वती बालपन से अभिन्न स्नेह सूत्रों में बँध जाते हैं, किन्तु देवदास की भीरू प्रवृत्ति और उसके माता-पिता के मिथ्या कुलाभिमान के कारण दोनों का विवाह नहीं हो पाता। दो तीन हजार रुपये मिलने की आशा में पार्वती के स्वार्थी पिता तेरह वर्षीय पार्वती को चालीस वर्षीय दुहाजू भुवन चौधरी के हाथ बेच देते हैं, जिसकी विवाहिता कन्या उम्र में पार्वती से बड़ी थी। विवाहोपरान्त पार्वती अपने पति और परिवार की पूर्णनिष्ठा व समर्पण के साथ देखभाल करती है। निष्फल प्रेम के कारण नैराश्य में डूबा देवदास मदिरा सेवन आरम्भ करता है,जिस कारण उसका स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर जाता है। कोलकाता में चन्द्रमुखी वेश्या से देवदास के घनिष्ठ संबंध स्थापित होते हैं। देवदास के सम्पर्क में चन्द्रमुखी के अन्तर में सत प्रवृत्तियाँ जाग्रत होती हैं। वह सदैव के लिए वेश्यावृत्ति का परित्याग कर अशथझूरी गाँव में रहकर समाजसेवा का व्रत लेती है। बीमारी के अन्तिम दिनों में देवदास पार्वती के ससुराल हाथीपोता पहुँचता है किन्तु देर रात होने के कारण उसके घर नहीं जाता। सवेरे तक उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। उसके अपरिचित शव को चाण्डाल जला देते हैं। देवदास के दुखद अन्त के बारे में सुनकर पार्वती बेहोश हो जाती है। देवदास में वंशगत भेदभाव एवं लड़की बेचने की कुप्रथा के साथ निष्फल प्रेम के करुण कहानी कही गयी है।

देवदास

1

एक दिन बैसाख के दोपहर में जबकि चिलचिलाती हुई कड़ी धूप पड़ रही थी और गर्मी की सीमा नहीं थी, ठीक उसी समय मुखोपाध्याय का देवदास पाठशाला के एक कमरे के कोने में स्लेट लिये हए पांव फैलाकर बैठा था। सहसा वह अंगड़ाई लेता हुआ अत्यंत चिंताकुल हो उठा और पल-भर में यह स्थिर किया कि ऐसे सुहावने समय में मैदान में गुड्डी उड़ाने के बदले पाठशाला में कैद रहना अत्यंत दुखदायी है। उर्वर मस्तिष्क से एक उपाय भी निकल आया। वह स्लेट हाथ में लेकर उठ खड़ा हुआ। पाठशाला में अभी जलपान की छुट्टी हुई थी। लड़कों का दल तरह-तरह का खेल-कूद और शोरगुल करता हुआ पास के पीपल के पेड़ के नीचे गुल्ली-डंडा खेलने लगा। देवदास ने एक बार उस ओर देखा। जलपान की छुट्टी उसे नहीं मिलती थी; क्योंकि गोविंद पंडित ने कई बार यह देखा है कि एक बार पाठशाला के बाहर जाने पर फिर लौट आना देवदास बिलकुल पसंद नहीं करता था उसके पिता की भी आज्ञा नहीं थी। अनेक कारणों से यही निश्चय हुआ था कि इस समय से वह छात्र-सरदार भूलो की देख-भाल में रहेगा।

एक कमरे में पंडितजी दोपहर की थकावट दूर करने के लिए आँख मूंदकर सोये थे। और छात्र सरदार भूलो एक कोने में हाथ पांव फैलाकर एक बेंच पर बैठा था और बीच-बीच में कड़ी उपेक्षा के साथ कभी लडकों के खेल को और कभी देवदास और पार्वती को देखता जाता था। पार्वती को पंडितजी के आश्रय और निरीक्षण में आये अभी कुल एक महीना हुआ है। पंडितजी ने संभवत: इसी थोड़े समय में उसका खूब जी बहलाया था, इसी से एकाग्र मन से धैर्यपूर्वक सोये हुए पंडितजी का चित्र 'बोधोदय' के अंतिम पृष्ठ पर स्याही से खींच रही थी और दक्ष चित्रकार की भांति विविद भाव से देखती थी कि उसके बड़े यत्न का वह चित्र आदर्श से कहां तक मिलता है। अधिक मिलता हो, ऐसी बात नहीं थी, पर पार्वती को इसी से यथेष्ट आनंद और आत्म-संतुष्टि मिलती थी। इसी समय देवदास स्लेट हाथ में लेकर उठ खड़ा हुआ और भूलो को लक्ष्य करके कहा- ' सवाल हल नहीं होता।'

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