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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन

।। श्री राम: शरणं मम।।

लोभ

यह मानव-जीवन जो है वह कभी समस्याओं से मुक्त नहीं होता। नित्य जीवन में हम देखते हैं कि भूख लगना एक स्वाभाविक क्रिया है और भूख न लगना एक रोग माना जाता है। भूख लगने पर व्यक्ति के सामने भोजन की समस्या आयेगी, भोजन मिल जाय तो उसके साथ स्वाद की समस्या, तृप्ति की समस्या और वह भोजन रोग पैदा न करके स्वास्थ्य प्रदान करे आदि अनेक समस्याएँ भोजन के साथ जुड़ी हुई हैं। यह बड़ी विचित्र सी बात है - भूख न लगे यह भी रोग है, भूख लगे पर स्वाद न हो तो भोजन अच्छा नहीं लगेगा। स्वादिष्ट भोजन हो और अधिक भोजन कर लिया जाय तब रोग हो जायगा। इसका अर्थ यही है कि संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें समस्या हो ही नहीं। जब समस्या होती है तो फिर व्यक्ति उस समस्या का समाधान खोजने का यत्न करता है।

मानव जीवन की जो अनेकानेक वृत्तियाँ हैं गोस्वामीजी ने उनका बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है, यह विश्लेषण बड़ा मनोवैज्ञानिक है बड़ा उपादेय है। इसके लिये उन्होंने आयुर्वेद की पद्धति का आश्रय लिया है। आयुर्वेद शास्त्र की पद्धति पुरानी है पर आजकल फिर से उसके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है। इस पद्धति की मान्यता है कि व्यक्ति के शरीर का संचालन जिन त्रिधातु अथवा त्रिदोष के द्वारा होता है, वे हैं - वात, पित्त और कफ। वैद्य नाड़ी देखकर पता लगाते हैं कि अस्वस्थ व्यक्ति की इन तीनों में से कौनसी नाड़ी प्रबल है। इस निदान के बाद वैद्य दवा बताते हैं तथा पथ्य बताते हैं जिससे व्यक्ति के रोग का उपशमन हो जाता है। यद्यपि यह तो कहा नहीं जा सकता कि वह रोग फिर कभी नहीं होगा पर उस समय उस विकार के संतुलन होने से रोग शान्त हो जाता है।

गोस्वामीजी ने कहा कि जैसे वात, पित्त और कफ के द्वारा शरीर संचालित होता है, उसी प्रकार काम, क्रोध और लोभ इन तीनों के द्वारा हमारा मन भी संचालित होता है, और उन तीनों के असंतुलन से जिस प्रकार शरीर रोगी होता है ठीक उसी प्रकार इन तीनों के असंतुलन से व्यक्ति का मन भी रोगी हो जाता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि-
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।। 7/121/30

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