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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

रंग-भेद


न्यायालय का चिह्न तराजू हैं। एक निष्पक्ष, अंधी परन्तु चतुर बुढिया उसे थामे हुए हैं। विधाता ने उसे अंधी बनाया हैं, जिससे वह मुँह देखकर तिलक न करे, बल्कि जो व्यक्ति गुण में योग्य है उसी को टीका लगाये। इसके विपरीत, नेटाल के न्यायालय से वहाँ की वकील सभा मुँह देखकर तिलक करवाने के लिए तैयार हो गयी थी। परन्तु अदालत ने इस अवसर पर अपने चिह्न की प्रतिष्ठा रख ली।

मुझे वकालत की सनद लेनी थी। मेरे पास बम्बई के हाईकोर्ट का प्रमाण-पत्र था। विलायत का प्रमाण-पत्र बम्बई के हाईकोर्ट के कार्यालय में था। प्रवेश के प्रार्थना पत्र साथ सदाचरण के दो प्रमाण पत्रों की आवश्यकता मानी जाती थी। मैंने सोचा कि ये प्रमाण-पत्र गोरो के होगे तो ठीक रहेगा। इसलिए अब्दुल्ला सेठ के द्वारा मेरे सम्पर्क में आये हुए दो प्रसिद्ध गोरे व्यापारियों के प्रमाण-पत्र मैंने प्राप्त कर लिए थे। प्रार्थना-पत्र किसी वकील के द्वारा भेजा जाना चाहिये था और साधारण नियम यह था कि ऐसा प्रार्थना पत्र एटर्नी जनरल बिना पारिश्रमिक के प्रस्तुत करे। मि. एस्कम्ब एटर्नी जनरल थे। हम यह तो जानते थे कि वे अब्दुल्ला सेठ के वकील थे। मैं उनसे मिला और उन्होंने खुशी से मेरा प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत करना स्वीकार किया।

इतने में अचानक वकील-सभा की ओर से मुझे नोटिस मिला। नोटिस में न्यायालय में मेरे प्रवेश का विरोध किया था। उसमें एक कारण यह दिया गया था कि वकालत के लिए दिये गये प्रमाण-पत्र के साथ मैंने मूल प्रमाण-पत्र नत्थी नहीं किया था। पर विरोध का मुख्य मुद्दा यह था कि अदालत में वकीलो की भरती करने के नियम बनाते समय यह सम्भव न माना गया होगा कि कोई काला या पीला आदमी कभी प्रवेश के लिए प्रार्थना-पत्र देगा। नेटाल गोरो के साहस से बना था, इसलिए उसमें गोरो की प्रधानता होनी चाहिये। यदि काले वकील प्रवेश पाने लगेंगे, तो धीरे-धीरे गोरो की प्रधानता जाती रहेगी औऱ उनकी रक्षा की दीवार नष्ट हो जायेगी।

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