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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :59
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 538

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(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)



सञ्जय उवाच


दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।।2।।

संजय बोले - उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।।2।।

दुर्योधन के लिए यह युद्ध बहुत महत्व रखता है, क्योंकि वह इस युद्ध के माध्यम से पाण्डवों और अपना विरोध करने वाली सभी शक्तियों को सदा के लिए समाप्त कर देना चाहता है। इसलिए वह अपने सभी शत्रुओं को द्रोणाचार्य को दिखाकर अपने पक्ष में लड़ने के लिए सम्पूर्ण शक्ति से युद्ध करने की अपेक्षा रखता है। वह मात्र खेलों का विवरण देने वाले उद्घोषक की तरह अपने सुनने वालों अथवा दर्शकों में रुचि बढ़ाने के लिए सेनानियों के नाम नहीं लेता है। परंतु संभवतः संजय के मन में वैसा भाव नहीं है, वह तो तटस्थ भाव से कौरवों और पाण्डवों के सेनानियों, रथियों और महारथियों की आदि की जानकारी देता है। ऐसा माना जा सकता है कि इस समय संजय ऐसी अपेक्षा रखता हो कि योद्धाओं का विवरण और उनकी युद्ध क्षमता आदि का विवरण सुनकर संभवतः धृतराष्ट्र अभी भी चेत जायें और इस युद्ध को रोकने की घोषणा कर दें। ऐसा न भी हो तब भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि इस महान गाथा में बारम्बार व्यासजी अपने पाठकों में कथा के मानवीय अनुभवों के प्रति ध्यान आकृष्ट करते रहते हैं।

साधारण परिस्थितियों युद्ध जब भी आरंभ होता है, तब अचानक आरंभ होता है। युद्ध के पहले होने वाली मंत्रणा हमेशा गुप्त रहती है। प्राचीनकाल में जब विरोधी राजाओं की सेनाएँ किसी दुर्ग को घेर लेती थीं, तब संभवतः यह भी होता हो कि दोनो सेनाएँ एक दूसरे पर आक्रमण करने से पहले एक दूसरे की शक्ति को आंकती हों, परंतु आज के समय में ऐसा नहीं होता है। आक्रमण, बहुत द्रुत गति से और शत्रु को चेताए बिना किये जाते हैं। महाभारत का युद्ध कुछ भिन्न प्रकार का था! दोनों सेनाओं को एक दूसरे पर बिना बताए आक्रमण करने की अपेक्षा एक निश्चित समय और स्थान पर यह युद्ध किया गया था। यह अलग बात है कि महाभारत के युद्ध में आगे के दिनों में छिप कर वार भी किये गये और दिन रात का कोई विचार नहीं किया गया। परंतु आरंभ में इस युद्ध को नियमों की सीमाओं में बाँधा गया था। संभवतः एक प्रतिस्पर्धा की तरह!

आजकल क्रिकेट या फुटबाल का मैच आरंभ होने के समय जिस प्रकार टॉस का निर्धारण होता है, अथवा दोनों टीमों के कोच और कप्तान आदि जिस प्रकार खेल आरंभ होने के पहले मंत्रणा करते हैं, उसी प्रकार दुर्योधन युद्ध आरंभ होने के समय द्रोणाचार्य से एक बार पुनः मंत्रणा करने जाता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उसे युद्धक्षेत्र में द्रोणाचार्य पर भीष्म की अपेक्षा अधिक विश्वास है। इसका कारण संभवतः यही है कि उसने अपने जीवन में द्रोणाचार्य को शिक्षा देते देखा है और उनसे, उसका स्वयं का व्यक्तिगत अनुभव जुड़ा हुआ है। भीष्म उसके लिए ऐतिहासिक पुरुष हैं, भीष्म कुरुवंश के संरक्षक तो हैं, परंतु वे मन ही मन पाण्डवों के समर्थक भी हैं। इसके अतिरिक्त स्वयं उसको भीष्म के शौर्य को देखने का कोई गहन अनुभव नहीं है। यहाँ हमें ध्यान रखना होगा कि दुर्योधन के दादा आदि भी भीष्म के पुत्रों की आयु के थे। कुरुवंश के सम्मान अथवा रक्षा हेतु, भीष्म ने इसके पूर्व जब भी अपना रण कौशल दिखाया था, तब समय दुर्योधन से दो पीढ़ी पहले का था। इसके विपरीत द्रोणाचार्य तो उसके अध्यापक ही थे, उसने और उसके समकक्ष सभी लोगों ने द्रोणाचार्य की देखरेख में शिक्षा ग्रहण की थी। पाठक समझ ही सकते हैं कि द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र के समकक्ष हैं, जबकि भीष्म उनके प्रपितामह की आयु के। दुर्योधन के लिए भीष्म पितामह एक ध्वज की तरह हैं जिसकी रक्षा करनी आवश्यक है, न कि एक योद्धा जो कि युद्ध के निर्णय को बदलने की क्षमता रखता है। यदि पाठक ध्यान दें तो यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि लगभग 40-45 वर्ष की आयु का दुर्योधन अभी इतना अशक्त भी नहीं है कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने में स्वयं को शारीरिक रूप से अशक्त मानता हो। हाँ, हम अपने जीवन में इतनी आयु वाले कई लोगों को देखते हैं जो अपनी जिद्द के आगे दिग्रभ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग अपनी शारीरिक शक्ति और उर्जा का उपयोग अपनी मनमानी करने में ही लगाते हैं। प्रथम और द्वितीय महायुद्ध के समय तत्कालीन कई राजनेताओं ने अपने मत पर अटकने का प्रदर्शन बार-बार किया था।

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