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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘ ‘अकबर सुंदरी के उत्तरों से संतुष्ट नहीं था। इस पर भी वह उसे कह नहीं सका कि उसने उसे जागीर दे रखी है। यह इसलिए कि वह उसकी लड़की है। यह न कह सकने के कारण वह सबका मुख देख रहा था। उसे परेशान देख मानसिंह ने कहा, ‘‘जहाँपनाह! इस वक्त मुकद्दमा तो यह है कि करीमखाँ की हत्या हुई है। हत्या करनेवाली यह लड़की नहीं। इस कारण इसे छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार इसके पति का इस हत्या में कोई हाथ नहीं। उसे भी छोड़ देना चाहिए। कुछ दूसरे लोग जो पकड़े गए हैं, वे यह जानने के लिए ही पकड़े गये थे कि कत्ल करनेवाले ने कत्ल क्यों किया था। यह न तो ज़ाती वजह से किया गया है और न ही किसी दुश्मनी के कारण। वजह ऐसी है जो माकूल है। इसलिए मेरी इल्तजा है कि सबको छोड़ दिया जाए।’

‘‘ ‘ठीक है।’’ अकबर ने कह दिया और सबको छोड़ दिया। मगर जब मैं सुंदरी के साथ सलाम कर आने लगा तो शहंशाह ने कह दिया, ‘सुंदरी! तुमसे महारानी बेगम मिलना चाहती हैं। इसलिए तुम उनसे मिले बिना नहीं जा सकतीं।’’ मुझे महल से निकाल दिया है और सुंदरी को नहीं छोड़ा। उसे खादिमा के साथ हरम में भेज दिया है।’

‘‘देखो निरंजन! मुझे शहंशाह ने बुलवा भेजा है। मैं उसके विषय में जानने का यत्न करूँगा।’’

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