उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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विभूतिचरण के आगरा पहुँचते ही शहंशाह के सामने उसको उपस्थित किया गया। उस समय रात काफी हो गई थी। शहंशाह अकेला था। विभूतिचरण ने हाथ उठा आशीर्वाद दिया तो शहंशाह ने उसे अपने सामने बैठने के लिए कह दिया।
विभूतिचरण बैठा तो शहंशाह ने कहा, ‘‘हम नहीं समझते कि किस तरह अपने ख्यालात का इज़हार करें। वह इतनी तादाद में और सब एकदम दिमाग में आ रहे हैं कि हम न तो यह जानते हैं कि कहाँ से शुरू करें और कहाँ खतम करें।’’
‘‘तो जहाँपनाह! इस समय मुझे छुट्टी दे दी जाए। मैंने सुबह से कुछ खाया-पीया नहीं और आज की कार्यवाही से निहायत थक गया हूँ।’’
‘‘मगर हम तुम्हें ज़िबह करना चाहते हैं।’’
‘‘मगर क्यों?’’ मैंने क्या गुनाह किया है?’’
‘‘तुमने एक मुसलमान लड़की को हिंदुस्तानी ख्यालात से भर दिया है।’’
‘‘सत्य? जहाँपनाह! किसको?’’
‘‘सुंदरी को।’’
‘‘तो उसने शिकायत की है?’’
‘‘वह तो जानती नहीं कि उसके दिमाग में कूड़ा-कर्कट भर दिया गया है।’’
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