उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
जहाँ तक मजदूरों की मेहनत का प्रश्न था, सब तैयार हो गये। विशेष रूप में जब उनको यह पता चला कि काम करने के दिन भोजन फकीरचन्द के घर से मिलेगा। सब जानते थे कि इस प्रकार काम वाले दिन एक छोटी-मोटी दावत हो जायेगी।
कठिनाई ईंट और सीमेंट के लिए रुपया एकत्रित करने में हुई। इसमें भी फकीरचन्द ने युक्ति से काम लिया। उसने स्वयं पहिले दो सौ रुपया लिखा दिया। पश्चात् अन्य भूमिपति कुछ-न-कुछ देने पर विवश हो गये। सब मिल-मिलाकर चार-साढ़े चार सौ रुपये एकत्रित हो गये। खर्चा तो इससे भी अधिक होने वाला था। सूर्यकान्त का अनुमान था कि छः-सात सौ रुपये के लगभग खर्चा होगा। फकीरचन्द ने कह दिया कि यदि सब भूमिपति अपना लिखाया हुआ चन्दा दे दें, तो शेष घाटा वह पूरा कर देगा। इस प्रकार योजना का श्रीगणेश हो गया।
इस सब मंत्रणा का परिणाम यह हुआ कि तीन मास के भीतर ही न केवल गड्ढ़ा भर गया, प्रत्युत गाँव में नालियाँ बन गईं और गाँव का गंदा पानी, गाँव के नीचे, दूर ले जाकर नदी में डाला जाने लगा।
सूर्यकान्त इस योजना की सफलता को देखकर समझ गया कि संगठनकर्त्ता की महत्ता कितनी है। इस प्रकार गाँव के कार्य हो रहे थे कि सूसन और सुन्दरलाल वहाँ आ पहुँचे। बैल ताँगे में से एक गोरी औरत और एक श्यामवर्ण के आदमी को उतरते देख, फकीरचन्द समझ गया कि कौन आया है। सूसन की गोद में बेबी था और नौकर ताँगे के साथ-साथ पैदल आया था।
फकीरचन्द इस समय मध्याह्न का भोजन करने आया हुआ था। उसने इनको आते हुए देख, मकान के दरवाजे पर आ, इनका स्वागत किया और संतू को उनका सामान उठाकर भीतर रखने के लिए कह दिया।
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