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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘तो आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ?’’ सुन्दरलाल ने पूछा।

‘‘जी हाँ, इन बहिनजी को देखकर तो सन्देह के लिए स्थान ही नहीं था। बिहारीलाल ने इनका और आपका परिचय तथा रूप-रेखा लिखकर भेज दी थी।’’

फकीरचन्द ने सूसन को घर के भीतर ले जाकर, उसका माँ से परिचय करा दिया। फकीरचन्द की माँ समझती थी कि वह गोरी औरत हिन्दुस्तानी में बातचीत नहीं कर सकेगी। इस कारण उसका विचार था कि वह उसकी सेवा-सुश्रूषा से बची रहेगी। साथ ही जब उसने उनके नौकर को साथ देखा तो निश्चिन्त हो गई।

परन्तु फकीरचन्द के परिचय कराने के पश्चात् जब सूसन ने माँ के चरण स्पर्श कर ‘पाँव लागूँ’ कहा, तो वह विस्मय में मुख देखती रह गई। वह समझ गई कि इससे मेलजोल बनाये बिना नहीं रहा जा सकेगा। अतः उसने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा, ‘‘बेटा ! आराम करो। अभी भोजन बन जायेगा, तो आपको बुला लूँगी।’’

कमरे में, जहाँ उनको ठहरने के लिए कहा गया था, दो पलँग लगे थे। एक ओर ड्रेसिंग टेबल रखी थी। उसके साथ कुर्सी और मेज भी थी। उनको वहाँ ठहराते हुए फकीरचन्द ने कहा, ‘‘आपको बम्बई जैसा आराम तो यहाँ मिल नहीं सकता। यह देहात है। इस-पर भी यत्न किया जायेगा कि आपको कम-से-कम कष्ट हो। आपको स्नान करना है क्या?’’

‘‘नहीं, हम स्नान करके आये हैं। भैया फकीरचन्द आप हमारी चिन्ता न करें। हम अपने आप इतना प्रबन्ध कर लेंगे।’’

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