उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 274 पाठक हैं |
‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
एक युवक ने पूछा– क्या अहल्या को उठा ले गये?
वागीश्वरी– हां भैया! उठा ले गये। मना कर रही थी कि अरी बाहर मत निकल, अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगायें। कहना, तुम्हें लाज नहीं आती? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों वह दुर्गति! हाय भगवान!
लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो देखते हैं कि मुंशी यशोदानन्दन की लाश रखी हुई और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले– तुम लोग समझते होगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज नहीं। फिर भी हम दोनों की जिंदगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे। आज उसका यह अंजाम हुआ। हम दोनों के दिल में मेल करना चाहते थे; पर हमारी मरजी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लड़ाती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अंजाम होगा।
एक युवक– हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं।
ख्वाजा– ले जाओ भाई, मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कन्धा देने से कोई हर्ज है! इतनी रिआयत तो मेरे साथ करनी पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार जरूर जाता।
युवक– अहल्या को भी उठा ले गये। माताजी ने आपसे…
ख्वाजा– क्या अहल्या! मेरी अहल्या को! कब?
युवक– आज ही। घर में आग लगाने से पहले।
ख्वाजा– कलामे मजीद की कसम, जब तक अहल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना-पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ; मैं अभी आता हूं। सारे शहर की खाक छान डालूँगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है; लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना, महमूद या तो अहल्या को खोज निकालेगा या मुंह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।
यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठायी और बाहर निकल गये।
चक्रधर को आगरे के उपद्रव बाबू यशोदनन्दन की हत्या और अहल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को वह पत्र सुना दिया और बोले– मेरा वहां जाना बहुत जरूरी है।
|