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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चक्रधर– जी हाँ, शायद बदमाश लोग पकड़ ले गये।

ख्वाजा– वह यही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी हुई है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहल्या को तलाश करता फिरता था; और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह जालिम उस पर जब्र करना चाहता था। आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया– छुरी सीने में भोंक दी।

चक्रधर– मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मुझे आपके साथ कामिल हमदर्दी है, आपका-सा इन्साफ – परवर, हकपरस्त आदमी इस वक्त दुनिया में न होगा। अहल्या अब कहां है?

ख्वाजा– इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूं कि चल तुझे घर पहुंचा आऊं, पर जाती ही नहीं। बस बैठी रो रही है।

लाश उठायी गयी। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गये। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गयी, ख्वाजा साहब रो पड़े। यह क्षमा के आंसू थे। चक्रधर भी आंसुओं को न रोक सके?

दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब जरा दम लेकर बोले– आओ बेटा, तुम्हें अहल्या के पास ले चलूं।

यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अन्दर चले चक्रधर का हृदय बांसों उछल रहा था। अहल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सुक कभी न थे। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे को ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और घूंघट में मुंह छिपा लिया। फिर एक ही क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारों से धोने लगी।

चक्रधर बोले– अहल्या! मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए, तुम बिलकुल उलटी बात कर रही हो।

यह कहकर उन्होंने अहल्या का हाथ पकड़ लिया; लेकिन वह हाथ छुड़ा कर हट गयी और कांपते हुए स्वर में बोली– नहीं-नहीं, मेरे अंग को मत स्पर्श कीजिए। सूंघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूं, आप जाकर अम्मां को समझा दीजिए। मेरे लिए दुःख न करें। मैं निर्दोष हूं, लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूं।

चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहल्या का हाथ पकड़ लिया और बोले– अहल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आंखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो, जितनी पहले थीं।

अहल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली– तुम केवल दया-भाव से मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो; या प्रेम-भाव से चक्रधर का दिल बैठ गया। अहल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूं। बोले– तुम्हें क्या जान पड़ता है, अहल्या?

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