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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


अहल्या– तुम्हें मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।

चक्रधर– तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।

अहल्या– जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊंगी। मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं, मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूं।

फिर सहसा अहल्या ने कहा– मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं; लेकिन आपके तिरस्कार और अपमान का खयाल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूं।

चक्रधर की आंखें करुणार्द्र हो गयीं। बोले– अहल्या, ऐसी बातें न करो। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवा नहीं करता। मैं तुमसे विनती करता हूं कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।

अहल्या ने अबकी स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की दाह जो उसे मर्मस्थल को जलाये डालती थी, इन शीतल आर्द्र शब्दों से शान्त हो गयी। शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी देह-चंचल दृष्टि स्थिर हो गयी और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आंखों के सामने खड़ी दिखायी दी।

बाबू यशोदानन्दन के क्रिया-कर्म की तीसरे ही दिन चक्रधर का अहल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन टालना चाहते थे; लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। विवाह में कुछ धूमधाम न हुई।

जिस दिन चक्रधर अहल्या को विदा कराके काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पहुंचाने आये। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहल्या आकर पालकी पर बैठी तो वह दुःखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। अहल्या भी रो रही थी; लेकिन शोक से नहीं; वियोग में। वागीश्वरी की गर्दन में उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गये कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया।

लेकिन चक्रधर के सामने एक दूसरी ही समस्या उपस्थिति हो रही थी। वह घर तो जा रहे थे, पर उस घर के द्वार बन्द थे। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार सम्बन्धियों की अवहेलना, उन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतरकर जाऊंगा कहाँ? इन चिन्ताओं से उनकी मुख-मुद्रा इतनी मलिन हो गयी कि अहल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़ी। उसकी वियोग व्यथा अब शान्त हो गयी थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था; लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर वह घबरा गयी। बोली– आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गयी?

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