उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर ने झेंपते हुए कहा– नहीं तो, उदास क्यों होने लगा? यह उदास होने का समय है, या आनन्द मनाने का?
मगर जितना ही अपनी चिन्ता को छिपाने का प्रयत्न करते थे, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र हो जाता है।
अहल्या ने गंभीर भाव से कहा– तुम्हारी इच्छा है, न बताओ; लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।
यह कहते-कहते अहल्या की आंखें सजल हो गयीं! चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनायीं और अन्त में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहल्या ने गर्व से कहा– अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरे? मैं घर चलूंगी। वे कितने ही नाराज हों, हैं तो हमारे माता-पिता! आप इन चिन्ताओं को दिल से निकाल डालिए। उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें, मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।
चक्रधर ने अहल्या को गद्गद नेत्रों से देखा और चुप ही रहे।
रात को दस बजते-बजते गाड़ी बनारस पहुंची। अहल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिन्तित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। लेकिन उन्हें आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशीजी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखते पाया। पिता के इस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वह जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धालुओं को रुमाल से पोंछते हुए स्नेह कोमल शब्दों में बोले-कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूं। खत तक न लिखा। यहां बराबर दस दिन से दो बार स्टेशन पर दौड़ा आता हूं और एक आदमी हरदम तुम्हारे इन्तजार में बाहर बिठाये रहता हूं कि न-जाने कब, किस गाड़ी से आ जाओ। कहां है बहू? चलो, उतार लायें। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन-मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाये देता हूं। मैं दौड़कर जरा बाजे-गाजे, रोशनी, सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहां लोग क्या जानेंगे कि बहू आयी है। वहां की बात और थी, यहां की बात और है। भाई-बन्दों के साथ रस्म-रिवाज मनाना ही पड़ता है।
यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहल्या के डिब्बे के द्वार पर खड़े हो गये। अहल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आंखों से श्रद्धा और आनन्द के आंसू बहने लगे। मुंशीजी ने उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग-रूम में बैठाकर बोले– किसी को अन्दर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घण्टे भर में आऊंगा।
चक्रधर ने दबी जबान से कहा– इस वक्त धूम-धाम करने की जरूरत नहीं। सबेरे तो सब मालूम हो ही जायेगा।
मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुए कहा– सुनती हो बहू, इनकी बातें? सवेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई?
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