उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
१७
राजा साहब विशाल पुर आते; तो इस तरह भागते, मानों किसी शत्रु के घर आए हों, रोहिणी को राजा साहब की यह निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूंढ़ती रहती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा पर ही पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनोरमा ने सरल भाव से कहा– यहां आप लोगों का जीवन बड़ी शांति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहता है।
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली– हां बहन, क्यों न हो! ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, तो चली क्यों नहीं आतीं? अकेले मेरा भी जी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे में दिन कट जायेंगे।
रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली– भला मुझमें वह हाव-भाव कहां है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किए रहूं, उधर हाकिमों को मिलाये रखूं। यह तो कुछ लिखी-पढ़ी, शहरवालियों को ही आता है, हम गंवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जानें।
मनोरमा खड़ी सन्न रह गयी। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गयी। वह दस-बारह मिनट तक इसी भांति स्तम्भित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई तो स्वयं अन्दर आये। दूर से ही पुकारा-नोरा, क्या कर रही हो? चलो, देर हो रही है। मनोरमा ने इसका कुछ जवाब न दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देखकर चौंक पड़े। वह सर्पदंशित मनुष्य की भांति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाये ताक रही थी, मानों आंखों की राह प्राण निकल रहे हों।
राजा साहब ने घबरा कर पूछा-नोरा, कैसी तबीयत है?
मनोरमा ने सिसकते हुए कहा– अब मैं यही रहूंगी, आप जाइए। मेरी चीजें यहाँ भिजवा दीजिएगा।
राजा साहब समझ गये कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य-शर चलाया है। उसकी ओर लाल आंखें करके बोले-तुम्हारे कारण यहां से जान लेकर भागा फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो। वहां भी शान्त नहीं रहने देतीं। मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है, बोलता हूं; जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता। तुम्हें इसकी जलन क्यों होती है?
रोहिणी– जलन होगी मेरी बला को। तुम यहां ही थे, तो कौन-सा फूलों की सेज पर सुला दिया था। यहां तो ‘जैसे कन्ता घर रहे, वैसे रहे विदेश।’ भाग्य में रोना बदा था, रोती हूं।
राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था, पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते हुए शर्माते थे। वह कोई लगती हुई बात करना चाहते थे, जो रोहिणी की जबान बंद कर दे, वह अवाक रह जाए। मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दण्ड स्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाय, वह क्षम्य थी। बोले-तुम्हें तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो न सुनने में आयेंगी।
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