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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


निर्मला–हो जायेगा। अभी थाने जाइए।

मुंशीजी को थाने में बड़ी देर लगी। एकान्त में बातचीत करने का बहुत देर मे मौका मिला। अलायार खां पुराना घाघ था। बड़ी मुश्किल से अण्टी पर चढ़ा। पांच सौ रुपये लेकर भी अहसान का बोझा सिर पर लाद ही दिया। काम हो गया। लौटकर निर्मला से बोला–लो भाई, बाजी मार ली, रुपये तुमने दिये, पर काम मेरी जबान ही ने किया। बड़ी-बड़ी मुश्किलों से राजी हो गया। यह भी याद रहेगी। जियाराम भोजन कर चुका है?

निर्मला–कहां, वह तो अभी घूमकर लौटे ही नहीं।

मुंशीजी–बारह तो बज रहे होंगें।

निर्मला–कई दफे जा-जाकर देख आयी। कमरे में अंधेरा पड़ा हुआ है।

मुंशीजी–और सियाराम?

निर्मला–वह तो खा-पीकर सोये हैं।

मुंशीजी–उससे पूछा नहीं, जिया कहां गया?

निर्मला–वह तो कहते हैं, मुझसे कुछ कहकर नहीं गये।

मुंशीजी को कुछ शंका हुई। सियाराम को जगाकर पूछा–तुमसे जियाराम ने कुछ कहा नहीं, कब तक लौटेगा? गया कहां है?

सियाराम ने सिर खुजलाते और आंखों मलते हुए कहा–मुझसे कुछ नहीं कहा।

मुंशीजी–कपड़े सब पहनकर गया है?

सियाराम–जी नहीं, कुर्ता और धोती।

मुंशीजी–जाते वक्त खुश था?

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