सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
लेखराज– वह कहता है दूसरा ठीकेदार जितना माँगे उससे मुझे सौ रुपये कम दिये जायँ।
गायत्री– तो अब एक-दूसरा ठीकेदार लगाना पड़ा। वह कितना तखमीना करता है?
लेखराज– उसके हिसाब से ६० हजार पड़ेंगे। माल-मसाला अब अव्वल दर्जे का लगायेगा। ६ महीने में काम पूरा कर लेगा।
गायत्री ने इस मकान का नक्शा लखनऊ में बनवाया था। वहाँ इसका तखमीना ४० हजार किया गया था। व्यंग भाव से बोली– तब तो वास्तव में आपका ठीकेदार बड़ा सज्जन पुरुष है। इसमें कुछ-न-कुछ तो आपके ठाकुर जी पर जरूर ही चढ़ाये जायेंगे।
लेखराज– सरकार तो दिल्लगी करती हैं। मुझे सरकार से यूँ ही क्या कम मिलता है कि ठीकेदार से कमीशन ठहराता? कुछ इच्छा होगी तो माँग लूँगा, नीयत क्यों बिगाड़ूँ?
गायत्री– मैं इसका जवाब एक सप्ताह में दूँगी।
कानूनगो– और मुझे क्या हुक्म होता है? पण्डितजी, आपने भी तो देखा होगा, सारन और जगराँव में हुजूर की कितनी जमीन दब गयी है?
पण्डित– जी हाँ, क्यों नहीं, सौ बीघे से कम न दबी होगी।
गायत्री– मैं जमीन देखकर आपको इत्तला दूँगी। अगर आपस में समझौते से काम चल जाये तो रार बढ़ाने की जरूरत नहीं।
दोनों महानुभाव निराश होकर विदा हुए। दोनों मन-ही-मन गायत्री को कोस रहे थे। कानूनगो ने कहा– चालाक औरत है, बड़ी मुश्किल से हत्थे पर चढ़ती है। लेखराज बोले, एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। न जाने बटोरकर क्या करेगी? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।
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