सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
एक दिन गायत्री ने कहा, अब तो आपके यहाँ नित्य कृष्ण-चर्चा होती है, पर्दे का प्रबन्ध हो जाय तो मैं भी आया करूँ। ज्ञानशंकर ने श्रद्धापूर्ण नेत्रों से गायत्री को देखकर कहा, यह सब आप ही के सत्संग का फल है। आपने ही मुझे यह भक्ति-मार्ग दिखाया है और मैं आपको ही अपना गुरु मानता हूँ। आज से कई मास पहले मैं माया-मोह में फँसा हुआ, इच्छाओं का दास, वासनाओं का गुलाम और सांसारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ था। आपने मुझे बता दिया कि संसार में निर्लिप्त होकर क्योंकर रहना चाहिए। इतनी सम्पत्तिशानिली हो कर भी आप संन्यासिनी हैं। आपके जीवन ने मेरे लिए सदुपदेश का काम किया है।
गायत्री ज्ञानशंकर को विद्या और ज्ञान का अगाध सागर समझती थी। वह महान् पुरुष जिसकी लेखनी में यह सामर्थ्य हो कि मुझे रानी के पद से विभूषित करा दे, जिसकी वक्तृताओं को सुन कर बड़े-बड़े अँग्रेज उच्चाधिकारी दंग रह जायँ, जिसके सुप्रबन्ध की आज सारे जिले में धूम है, मेरा इतना भक्त हो, इस कल्पना से ही उसका गौरवशील हृदय विह्वल हो गया। ऐसे सम्मानों के अवसर पर उसे अपने स्वामी की याद आ जाती थी। विनीत भाव से बोली, बाबू जी यह सब भगवान् की दया है। उन्होंने आपको यह भक्ति प्रदान की है नहीं तो लोग यावज्जीवन धर्मोपदेश सुनते रह जाते हैं और फिर भी उनके ज्ञानचक्षु नहीं खुलते। कहीं स्वामी से आपकी भेंट हो गई होती तो आप उनके दर्शनमात्र से ही मुग्ध हो जाते। वह धर्म और प्रेम के अवतार थे। मैं जो कुछ हूँ उन्हीं की बनायी हुई हूँ। यथासाध्य उन्हीं की शिक्षाओं का पालन करती हूँ, नहीं तो मेरी गति कहाँ थी कि भक्तिरस का स्वाद पा सकती।
ज्ञानशंकर– मुझे भी यह खेद है कि उन महात्मा के दर्शनों से वंचित रह गया। जिसके सदुपदेश में यह महान शक्ति है वह स्वयं कितना प्रतिभाशील होगा! मैं कभी-कभी स्वप्न में उनके दर्शन से कृतार्थ हो जाता हूँ। कितनी सौम्य मूर्ति थी मुखारविन्द से प्रेम की ज्योति सी प्रसारित होती हुई जान पड़ती है। साक्षात कृष्ण भगवान के अवतार मालूम होते हैं।
दूसरे दिन से पर्दे का आयोजन हो गयी और गायत्री नित्य प्रति इन सत्संगों में भाग लेने लगीं। भक्तों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी। कीर्तन के समय लोग भावोन्मत्त होकर नाचने लगते। गायत्री के हृदय से भई यही प्रेम-तरंगें उठतीं। यहाँ तक कि ज्ञानशंकर भी स्थिर चित्त न रह सकते। कृष्ण के पवित्र प्रेम की लीलाएँ उनके चित्त को एक क्षण के लिए प्रेम से आभासित कर देती थी। और इस प्रकाश में उन्हें अपनी कुटिलता और क्षुद्रता अत्यन्त घृणोत्पादक दीख पड़ती। लेकिन सत्संग के समाप्त होते ही यह क्षणिक ज्योति फिर स्वार्थन्धकार में विलीन हो जाती थी। बालक कृष्ण की भोली-भाली क्रीड़ाएँ, उनकी वह मनोहर तोतली बातें, यशोदा का वह विलक्षण पुत्र-प्रेम, गोपियों को वह आत्माविस्मृति, प्रीति के वह भावमय रहस्य, वह अनुराग के उद्गार वह वंशी की मतवाली तान, वह यमुना तट के विहार की कथाएँ, लोगों को अतीव आनन्दप्रद आत्मिक उल्लास का अनुभव देती थीं। भूतवादियों की दृष्टि में ये कथाएँ कितनी ही लज्जास्पद क्यों न हों, पर उन भक्तों के अन्तःकरण इनके श्रवण-मात्र से ही गद्गद हो जाते थे। राधा और यशोदा का नाम आते ही आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी। कृष्ण के नाम में क्या जादू है, इसका अनुभव हो जाता था।
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