सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
धीरे-धीरे जेठ भी गुजरा, लेकिन लगान की एक कौड़ी न वसूल हुई। खेत में अनाज होता तो कोई न कोई महाजन खड़ा हो जाता, लेकिन सूखी खेती को कौन पूछता है? अन्त में ज्ञानशंकर ने बेदखली दायर करने की ठान ली। इसी की देरी थी नालिश हो गयी, किन्तु गाँव में रुपयों का बन्दोबस्त न हो सका। उज्रदारी करने वाला भी कोई न निकला। सबको विश्वास था कि एकतरफा डिग्री होगी और सब के सब बेदखल हो जायेंगे। फैजू और कर्तार बगलें बजाते फिरते थे। अब मैदान मार लिया है। खाँ साहब गये तो क्या, गाँव साफ हो गया। कोई दाखिलकार असामी रहेगा ही नहीं, जितनी चाहें जमीन की दर बढ़ा सकते हैं। हजार की जगह दो हजार वसूल होंगे। इस कारगुजारी का सेहरा मेरे सिर बँधेगा। दूर-दूर तक मेरी धूम हो जायगी। इन कल्पनाओं से फैजू मियाँ फूलें नहीं समाते थे।
निदान फैसले की तारीख आ गयी। कर्तारसिंह ने मलमल का ढीला कुरता और गुलाबी पगड़ी निकाली, जूते में कड़वा तेल भरा, लाठी में तेल मला, बाल बनवाये और माथे पर भभूत लगायी। फैजुल्लाह खाँ ने चारजामे की मरम्मत करायी, अपनी काली अचकन और सफेद पगड़ी निकाली। बिन्दा महाराज ने भी धुली हुई गाढ़े की मिर्जई और गेरू में रँगी हुई धोती पहनी। बेगारों के सिरों पर कम्बल, टाट आदि लादे गये और तीनों आदमी कचहरी चलने को तैयार हुए। केवल खाँ साहब की नमाज की देर थी।
किन्तु गाँव में जरा भी हलचल न थी। मर्दों में कादिर के छोटे लड़के के सिवा और सभी नीच जातियों के लोग थे, जिन्हें मान- अपमान का ज्ञान ही न था; और वह बेचारा कानूनी बातों से अनभिज्ञ था। झपट के दिल में ऐसा हौल समाया हुआ था कि घर से बाहर ही न निकलते थे। रही स्त्रियाँ वे दीन अबलाएँ कानून का मर्म क्या जानें! आज भी नियमानुसर उनके दोनों अखाड़े जमे हुए थे। बूढ़ियाँ कहती थीं, खेत निकल जायें, हमारी बला से, हमें क्या करना है? आज मरे कल दूसरा दिन। रहे भई तो हमारे किस काम आयेंगे? इन रानियों का घमंड तो चूर हो जायेगा! यहाँ तक कि विलासी भी जो इस सारी विपत्ति-कथा की कैकेयी थी, आज निश्चित बैठी हुई थी। विपक्षी दल को आज सन्धि-प्रार्थना की इच्छा हो रही थी, लेकिन कुछ तो अभिमान और कुछ प्रार्थना की स्वीकृति की निराशा इच्छा को व्यक्त न होने देती थी।
आठ बजे खाँ साहब की नमाज पूरी हुई। इधर विन्दा महाराज ने चबेना खा कर तम्बाकू फाँका और कर्तारसिंह ने घोड़े को लाने का हुक्म दिया कि इतने में सुक्खू चौधरी सामने से आते दिखाई दिये। वही पहले का-सा वेश था, सिर पर कन्टोप, ललाट पर चन्दन, गले में चादर, हाथ में एक चिपटा। आकर चौपाल में जमीन पर बैठ गये। गाँव के लड़के जो उनके साथ दौड़ते आये थे। बाहर ही रुक गये। फैजू ने पूछा, चौधरी कहो, खैरयित से तो रहे? तुम्हें जेल से निकले कितना अरसा हुआ।
चौधरी ने कर्तार से चिलम ली, एक लम्बा दम लगाया। और मुँह से धुएँ को निकालते हुए बोले, आज बेदखली की तारीख है न।
कर्तार-कागद-पत्तर देखा जाय तो जान पड़े। यहाँ नित एक न एक मामला लगा ही रहता है। कहाँ तक कोई याद रखे।
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