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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


शाम को जयसिंह तथा दुर्गादास आदि मुगल सरदारों से मिलकर औरंगजेब के लिए जो षडयंत्र रचा गया था, उस पर विचार करने लगे। दुर्गादास ने कहा- ‘खां साहब, देखो, धोखा न देना! नहीं तो बेचारे अकबर शाह के अरमान खाक में मिल जायेंगे। अगर धोखा दिया भी, तो हमारा क्या जायेगा? हम तो लड़ाई के लिए घर से निकले ही हैं, जहां एक से निपटना है, वहां दो से सही!

मुहम्मद खां ने कहा- ‘वाह! हम मुसलमान हैं, बात कहकर बदलते नहीं। आगे बढ़कर पीछे नहीं हटते। फिर यह तो अपने मतलब की बात है। इसी तरह अपनी-अपनी उड़ा रहे थे। अकबर शाह तो इतने प्रसन्न थे, मानो बादशाह ही बने बैठे हैं।

परन्तु यह अभी किसी को नहीं मालूम कि बना बनाया खेल बिगड़ गया। मनुष्य लाख सिर मारे; जो ईश्वर चाहता है, वही होता है। उसके सभी काम विलक्षण हैं, कौन जान सकता है कि कब क्या होगा। चाहे जितनी गुप्त रीति से बातचीत क्यों न की जाय, भेद खुल ही जाता है। बड़े-बड़े लोगों ने कहा है कि कान दीवार के भी होते हैं।

जब देसुरी में शाहजादे के खेमे में इस पर बातचीत हो रही थी उस समय एक मुगल सिपाही शमशेर बाहर पहरे पर था। वह बात सुन रहा था। यह था मौलवी; कट्टर मुसलमान। अकबर और शाहजहां को भी काफिर ही कहता था। वह रोजा और नमाज से बढ़कर सबाब हिन्दुओं को दुख देने ही में समझता था। उसने सोचा कि काफिरों ने एक कट्टर मुसलमान बादशाह के विरुद्ध षडयंत्र रचा है, और वह मुझे मालूम हो गया है। अगर मैंने कोई उपाय न किया तो मैं भी खुदावन्द करीम की नजरों में काफिर ही बनूंगा; इसलिए यहां से निकलना चाहिए, देर करने में काम बिगड़ता है और काम बिगड़ने पर केवल पछतावा ही साथ रहेगा। पछता ही के क्या करूंगा? फिर यहां किसलिए ठहरूं? अगर बच निकला तो एक मुसलमान को काफिरों के पंजे से छुड़ा सकूंगा, और अगर पकड़ा गया, तो इस्लाम के नाम कुरबान हो जाऊं। अस्तु; मौलवी साहब को किसी तरह का कष्ट न उठाना पड़ा। सुगमता से निकल गये, क्योंकि वीर दुर्गादास ने अपने मुगल कैदियों पर कड़ा पहरा न रखा था। दूसरे दिन मौलवी साहब अजमेर पहुंचे और बादशाह से कच्चा चिट्ठा कह सुनाया। औरंगजेब था बड़ा ही धूर्त, तुरंत ही एक चिट्ठी अकबर शाह के नाम लिखवाकर एक फकीर को दी, कि इसे दुर्गादास के खेमे में डाल दे। फकीर को इनाम दिया गया। फकीर को कहीं रोक-टोक तो थी नहीं, मांगता-जांचता लश्कर में पहुंचा और अवसर पाकर पत्र दुर्गादास के डेरे में फेंक दिया। दैवयोग से वह पत्र सन्तरी के हाथ लगा, उठाकर दुर्गादास के पास लाया। दुर्गादास ने देखा तो उस पर शाही मुहर थी, और शहजादे के नाम था। खोलकर पढ़ने लगा -

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