कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
|
340 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
जब राजपूतों का उपद्रव शान्त हुआ, तो दोनों दबे पांव बाहर निकले। रात का पिछला पहर था। चन्द्रदेव अस्त हो चुके थे। हां, चारों तरफ आकाश पर तारे जरूर झिलमिला रहे थे। दुर्गादास अपना लश्कर लेकर बुधाबाड़ी लौट आया, मैदान साफ था, इसलिए औरंगजेब को ऊंची-ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ने के सिवा और कोई अड़चन न पड़ी। कोई कहीं देख न ले! शत्रु के हाथ फिर न पड़ जायें! केवल यही भय था। इसलिए अपने को छिपाता हुआ बड़ी सावधानी से इधर-उधर पहाड़ियों में भटकने लगा। जैसे-तैसे भूखा-प्यासा तीसरे दिन अजमेर पहुंचा। अजीम उससे पहले ही वहां पहुंच गया था। औरंगजेब उस पर बहुत झुंझला गया और गुस्सा कुछ अजीम ही पर न था। वह जिसे पाता था, फाड़ खाता था। जलपान के पश्चात जरा जी ठिकाने हुआ, तो सरदारों को बुलाया। जब किसी में वीर दुर्गादास का सामना करने का साहस न देखा तो अपने राज्य के कोने-कोने से मुसलमानी सेना भेजने के लिए सूबेदारों को आज्ञा-पत्र लिखवाये। फिर भी सन्तोष न हुआ। सोचने लगा कि इतनी मुगल सेना, जिसे दुर्गादास का सामना करने को भेज सकूं; एक सप्ताह में एकत्र होना असम्भव है और दुर्गादास का कुछ ठीक नहीं, न जाने कब अजमेर पर धावा बोल दे? इसलिए कोई जाल फेंकना चाहिए।
दूसरे दिन सरदार जुल्फिकार खां को चालीस हजार अशर्फियां देकर वीर दुर्गादास के पास भेजा। यह सरदार भी बड़ा चतुर था। शाम को दुर्गादास की छावनी में पहुंचा। सवेरे आज्ञा पाकर वीर दुर्गादास के पास गया। सलाम किया और अशर्फियां सामने रखकर बोला ठाकुर साहब! हमारे बादशाह सलामत ने आपको सलाम कहा है; और ये चालीस हजार अशर्फियां भेंट में भेजी हैं। ठाकुर साहब, अब आपको चाहिए कि बादशाह की भेंट को खुशी के साथ स्वीकार करें, और ईश्वर को धन्यवाद दें; क्योंकि बादशाह जल्द किसी पर प्रसन्न नहीं होते। न जाने क्यों आज आपकी बहादुरी पर खुश हो गये! पुरस्कार में ये चालीस हजार अशर्फियां ही नहीं भेजी, साथ ही साथ यह भी कहला भेजा है कि तेजकरण को पांच हजार सवारों का नायक बनाऊंगा और मारवाड़ के सरदारों के अधिकार जैसे राजा यशवन्तसिंह के सामने थे वैसे ही रहेंगे। जिसकी जागीर जब्ती की गई है, वह लौटा दी जायगी। और लौट जाने पर, सब राजपूत बन्दी भी छोड़ दिये जायेंगे। इसलिए कृपा कर मुझे शीघ्र ही लौट जाने की आज्ञा दे और शाहजादे को सादर मेरे साथ कर दें। बादशाह अकबरशाह के वियोग से दुखी हैं। उसे देखते ही बड़ा प्रसन्न होगा; ईश्वर जाने आपके साथ और क्या भलाई करे? अच्छे कामों में देर न करनी चाहिए। शंका विनाश का कारण है। शंका करने से बने-बनाये काम बिगड़ते हैं। अगर मैं खाली हाथ लौटा तो समझे रहिए, राजाओं की प्रसन्नता उतना सुख नहीं देती, जितना कि अप्रसन्नता दु:ख देती है। ईश्वर न करे, कहीं बादशाह आपके बर्ताव से चिढ़ जाय, तो यह जान लीजिएगा कि पलक मारते ही जोधपुर का सत्यानाश कर डालेगा। जो बादशाह क्षण-मात्र में बीस लाख सेना इकट्ठी कर सकता है, उसका सामना आप मुट्ठी भर राजपूत लेकर क्या कर सकते हैं? मैं आपकी भलाई के लिए आया हूं, बुराई के लिए नहीं। अगर आप अपने धर्म को, अपनी बहन-बेटियों की, अपने भोले भाइयों की और देव-मंदिरों की भलाई चाहते हों, तो शाहजादे को हमारे साथ कर दें। ठाकुर साहब, एक के लिए बहुतों को दु:ख में डालना चतुराई नहीं।
|