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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग

प्रेमचन्द की सभी कहानियाँ इस संकलन के 46 भागों में सम्मिलित की गईं हैं। यह इस श्रंखला का इकतालीसवाँ भाग है।

अनुक्रम

1. शाप
2. शिकार
3. शिकारी राजकुमार
4. शुद्धि
5. शूद्र
6. शेख मखमूर
7. शोक का पुरस्कार

1. शाप

मैं बर्लिन-नगर का निवासी हूँ। मेरे पूज्य पिता भौतिक विज्ञान के सुविख्यात ज्ञाता थे। भौगोलिक अन्वेषण का शौक़ मुझे भी बाल्यावस्था ही से था। उनके स्वर्गवास के बाद मुझे यह धुन सवार हुई कि पृथ्वी के समस्त देश-देशांतरों की पैदल सैर करूँ। मैं विपुल धन का स्वामी था, वे सब रुपये एक बैंक में जमा कर दिये, और उससे शर्त कर ली कि मुझे यथासमय रुपये भेजता रहे। इस कार्य से निवृत होकर मैंने सफर का पूरा सामान किया। आवश्यक वैज्ञानिक यन्त्र साथ लिये, और ईश्वर का नाम लेकर चल खड़ा हुआ। उस समय यह कल्पना मेरे हृदय में गुददुदी पैदा कर रही थी कि मैं वह पहला प्राणी हूँ, जिसे यह बात सूझी कि पैरों से पृथ्वी को नापे। अन्य यात्रियों ने रेल जहाज और मोटर-कार की शरण ली है; मैं पहला ही वीरात्मा हूँ, जिसने अपने पैरों के बूते पर प्रकृति के विराट उपवन की सैर के लिए कमर बाँधी है। अगर मेरे साहस और उत्साह ने यह कष्ट-साध्य यात्रा पूरी कर ली तो भद्र संसार मुझे सम्मान और गौरव के मसनद पर बैठाएगा, और अन्त काल तक मेरी कीर्ति के राग अलापे जाएँगे। उस समय मेरा मस्तिष्क इन्हीं विचारों से भरा हुआ था। ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि सहस्रों कठिनाइयों का सामना करने पर भी धैर्य ने मेरा साथ न छोड़ा, और उत्साह एक क्षण के लिए भी निरुत्साह न हुआ।

मैं वर्षों ऐसे स्थानों में रहा हूँ, जहाँ निर्जनता के सिवा कोई दूसरा साथी न था, वर्षों ऐसे स्थानों में रहा हूँ, जहाँ की पृथ्वी और आकाश हिम की शिलाएँ थीं, मैं भयंकर जन्तुओं के पहलू में सोया हूँ, पक्षियों के घोसलों में रातें काटी हैं, किंतु ये सारी बाधाएं कट गईं, और वह समय अब दूर नहीं कि साहित्य और विज्ञान संसार मेरे चरणों पर शीश नवाए।

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