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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

ब्रह्मचर्य-2


अच्छी तरह चर्चा करने और गहराई से सोचने के बाद सन् 1906 में मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। व्रत लेने के दिन तक मैंने धर्मपत्नी के साथ सलाह नहीं की थी, पर व्रत लेते समय की। उसकी ओर से मेरा कोई विरोध नहीं हुआ।

यह व्रत मेरे लिए बहुत कठिन सिद्ध हुआ। मेरी शक्ति कम थी। मैं सोचता, विकारों को किस प्रकार दबा सकूँगा। अपनी पत्नी के साथ विकारयुक्त सम्बन्ध का त्याग मुझे एक अनोखी बात मालूम होती थी। फिर भी मैं यह साफ देख सकता था कि यही मेरा कर्तव्य हैं। मेरी नीयत शुद्ध थी। यह सोचकर कि भगवान शक्ति देगा, मैं इसमे कूद पड़ा।

आज बीस बरस बाद उस व्रत का स्मरण करते हुए मुझे सानन्द आश्चर्य होता है। संयम पालने की वृत्ति तो मुझ में 1901 से ही प्रबल थी, और मैं संयम पाल भी रहा था, पर जिस स्वतंत्रता और आनन्द का उपभोग मैं अब करने लगा, सन् 1906 के पहले उसके वैसे उपयोग का स्मरण मुझे नहीं हैं। क्योंकि मैं उस समय वासना-बद्ध था, किसी भी समय उसके वश हो सकता था। अब वासना मुझ पर सवारी करने में असमर्थ हो गयी।

साथ ही, मैं अब ब्रह्मचर्य ती महिमा को अधिकाधिक समझने लगा। व्रत मैंने फीनिक्स में लिया था। घायलो की सेवा-शुश्रूषा के काम से छुट्टी पाने पर मैं फीनिक्स गया था। वहाँ से मुझे तुरन्त जोहानिस्बर्ग जाना था। मैं वहाँ गया और एक महीने के अन्दर ही सत्याग्रह की लड़ाई का श्रीगणेश हुआ। मानो ब्रह्मचर्य व्रत मुझे उसके लिए तैयार करने ही आया हो ! सत्याग्रह की कोई कल्पना मैंने पहले से करके नहीं रखी थी। उसकी उत्पत्ति अनायास, अनिच्छापूर्वक ही हुई। पर मैंने देखा कि उससे पहले के मेरे सारे कदम - फीनिक्स जाना, जोहानिस्बर्ग का भारी घरखर्च कम कर देना और अन्त में ब्रह्मचर्य व्रत लेना - मानो उसकी तैयारी के रुप में ही थे।

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