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जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू

अरस्तू

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10541

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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…

नए संधान : स्कूल प्रस्थापन, अध्यापन और अनुसंधान

तेरह वर्षों पश्चात ईसा पूर्व 335 में एथेंस लौटकर सबसे पहले अरस्तू ने अपनी पुरानी अकादमी की खोज खबर ली। प्लेटो की अकादमी का वातावरण बिल्कुल बदला हुआ था। अरस्तू की यद्यपि दर्शनिक के रूप में ख्याति इस समय दूर-दूर तक फैल चुकी थी किंतु अपनी ही अकादमी में एक विदेशी की तरह उससे व्यवहार किया गया। संयोग से अकादमी के अध्यक्ष स्प्यूसिपस की कुछ समय पूर्व मृत्यु हो चुकी थी। अरस्तू ने सोचा कि स्प्यूसिपस की मृत्यु के पश्चात शायद वह ही अध्यक्ष बनाया जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। अकादमी का अध्यक्ष अरस्तू के ही पुराने साथी जेनोक्रोतिस को बनाया गया। अरस्तू अकादमी की गतिविधियों से सहमत न था। उसने कुछ सुझाव रखे परंतु नियमों में परिवर्तन करना जेनोक्रातिस के लिए संभव न था क्योंकि उस काल की शिक्षा पद्धति में गुरु-शिष्य परंपरा के द्वारा मूल संस्थापक के दृष्टिकोण को प्रचलित रखना अभीष्ट था।

एथेंस यूनान का ही नहीं संसार का शिक्षा और संस्कृति का केंद्र था अतः इसी नगर में अरस्तू ने अपना स्कूल खोला। स्कूल चलाने के लिए जिन भवनों को उसने किराए पर लिया, उसमें मुख्य भवन छत से ढंका एक प्रांगण था, जिसे यूनानी भाषा में ‘पेरीपातोन’ कहा जाता था। इसी भवन के नाम पर अरस्तू के स्कूल का नाम भी ‘पेरीपातोन’ पड़ गया। स्कूल के समीप अपोलोन लियोकान का मंदिर स्थित होने के कारण कालांतर में अरस्तू का स्कूल लीकियम नाम से जाना गया।

विद्यार्थियों का हुजूम स्कूल की ओर आने लगा। वे सभी उस व्यक्ति से पढ़ना चाहते थे जो सर्व सम्मति से युग का महान दार्शनिक था। विद्यार्थियों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर स्कूल के नियम कुछ सख्त करने पड़े ताकि व्यवस्था सुचारु बनी रहे। अवसर दिए जाने पर स्वयं विद्यार्थियों ने नियम बनाए। विद्यार्थी अपने में से एक को आगामी दस दिनों के लिए स्कूल का पर्यवेक्षक चुन लेते! इससे वातावरण मुक्त हो उठा। अनुशासन था, पर कठोर नहीं। विद्यार्थी अपने गुरुओं के साथ मिलकर भोजन करते। जो लीकियम में आ गए वे भ्रमणशील दार्शनिक कहलाने लगे क्योंकि संवाद करते हुए वे सीढ़ियों से ऊपर जाते फिर नीचे आते।

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