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जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप

कवि प्रदीप

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10543

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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।


लगभग इकतीस हजार वर्ष पूर्व हम इंसान के सान्निध्य में कैसे आए, इसकी कथा बड़ी रोचक है। उस समय तक जंगली जानवरों के हमलों से बचने के लिए और सफलतापूर्वक उनका शिकार करने को इंसान ने समूह बनाकर साथ रहना सीख लिया था। वे मिलकर शिकार करते और सब साथ बैठकर खाते। खाद्य पदार्थ की महक से हमारे कुछ भूखे साथी वहीं आसपास मंडराते रहते। इंसान शिकार के उन अंगों को काटकर दूर फेंक देता, जो उसके लिये रुचिकर न होते। हमारे लिए वह माल मुफीद होता। इस तरह हमारी क्षुधा शांत हो जाती और फिर हम शिकार को न जाते। यह रोज का क्रम हो गया। इंसान द्वारा फेंका हुआ ´माल´ जब हम खा रहे होते तो उसकी गंध से आकर्षित होकर भेड़िया, सियार, लोमड़ी जैसे अन्य जानवर वहां आ जाते। उन्हें हम भौंककर तत्काल भगा देते। इंसान के संपर्क के आने के पहले ही हम भौंकना सीख चुके थे। हमारे भौंकने की विशेषता के कारण हमारा नाम ´श्वान´ पड़ा। इंसान ने जब यह देखा कि जंगली जानवरों को दूर खदेड़ देने में हम समर्थ हैं तो उसने धीरे-धीरे हमें अपना दोस्त बना लिया। कुछ समय तक खूब खातिरदारी चली और बाद में हम उसके पालतू बन गए।

उस समय इंसानी भाषा बड़ी अटपटी थी। शब्दों का तो अकाल-सा था। अधिकांशतः इंसान इशारे से अपने मनोभाव व्यक्त करते। उनके इशारे हमारी भी समझ में आने लगे। कालांतर में इंसान ने भाषा का आविष्कार कर लिया। हमारी वाक् शक्ति अत्यंत सीमित थी। अतः हमने अपने एक शब्द को कई अभिव्यक्तियां देने की वक्रोक्ति विकसित की। जैसे हमारी ´भौं-भौं´ को ही लीजिए। किसी अनजान आदमी या पशु पर जब हम रक्षार्थ भौंकते हैं, तो उसमें एक त्वरा होती है। जब हम मालिक पर भौंकते हैं, तो उसमें एक शिकायत होती है और अपने साथियों पर हमारा भौंकना उनकी कर्तव्य के प्रति उपेक्षा के लिए फटकार होती है।

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