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जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप

कवि प्रदीप

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10543

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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।

गांठ

रस्सी, धागे आदि का फंदा कसने या जोड़ने से पड़ी हुई गुत्थी को गांठ कहते हैं। गांठ के लिए अलगाव की स्थिति आवश्यक है। किसी चीज को जोड़ने पर जुड़ाव का जो चिह्न उभरता है वही गांठ होती है। पहले धोती आदि कपड़े के छोर में कुछ, आमतौर पर सिक्के, रखकर लगाई गई गिरह को गांठ कहते थे। इस प्रकार ´गांठ´ आधुनिक बटुआ या जेब बन गई। माताएं अपनी गांठ खोलकर बच्चों को पैसे दिया करती थीं। जिस प्रकार आजकल जेब कटती है उसी प्रकार पहले गांठ कट जाती थी। ऐसे में कहा जाता था कि गांठ का जो था सब चला गया। गांठ कतरना पेशा बन गया। नादान या नासमझ पैसे वाले को गांठ का पूरा कहा जाता था और यदि वह मूर्ख हो यानी कुपात्रों पर पैसा खर्च करने वाला हो तो मुहावरे का विषय बन जाता था यानी गांठ का पूरा आंख का अंधा।

ईख, बांस आदि के पोरों के जोड़ को गांठ कहते हैं। इन्सान के हाथ-पैर के जोड़ को भी गांठ कहा जाता है। जब यह गांठें खूब क्रियाशील हों तो आदमी ´गठीला´ कहलाता है। बुढ़ापे में इन्हीं गांठों में दर्द होने पर उसे गठिया और उसके दर्द को गठियाबाई के नाम से जाना जाता है। हरेक गांठ से जुड़ा हमारा अवयव वहीं से मुड़ता है क्योंकि गांठ एक प्रकार के ´रस´ से संचालित होती है। बुढ़ापे में इस रस के सूख जाने या कम हो जाने पर गांठों के संचालन पर प्रभाव पड़ता है और उनमें दर्द होने लगता है। उस समय ऊपर से रस पिलाया जाता है यानी कोई तेल या औषधि की प्रभावित अंग पर मालिश की जाती है।

ईख के पोर-पोर में रस होता है पर जैसा कि कहा गया है, ´जहां गांठ वहं रस नहीं।´ रस प्रेम का प्रतीक होता है, गांठ पड़ते ही रस तिरोहित हो जाता है। लेकिन रहीम हमें बताते हैं कि एक गांठ ऐसी भी होती है जिस में रस होता है। उन्हीं के शब्दों में जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय। मड़ए तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय।। ´मडए तर´ आने से पहले प्रेमी नायक-नायिका ने क्या-क्या भुगता होता है इसका खुलासा कविवर बिहारी ने बखूबी किया है। उनका कथन सुनकर हमें यह भी ज्ञात हो गया कि एक अमूर्त गांठ ´ईर्ष्या´ की भी होती है। देखें, बिहारी क्या कहते हैं- दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीत। परत गांठ दुरजन हिए दई नई यह रीत।

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