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जीवनी/आत्मकथा >> सिकन्दर

सिकन्दर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10547

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जिसके शब्दकोष में आराम, आलस्य और असंभव जैसे शब्द नहीं थे ऐसे सिकंदर की संक्षिप्त गाथा प्रस्तुत है- शब्द संख्या 12 हजार...



भय को जीतो दोस्तो

ईसा पूर्व 331 की जुलाई को सिकंदर ने पूर्व में स्थित मेसोपोटामिया (अब उत्तरी ईराक) में प्रवेश किया। इसस की पराजय के पश्चात पारसीक एक बार फिर सिकंदर के विरुद्ध युद्ध करने की तैयारी में जुट गए थे। इस बार 5 लाख की सेना तैयार थी। सिकंदर और उसके सेनापतियों ने शत्रु पक्ष का अपार सैन्य बल देखा। उसके सामने अपनी नगण्य सैनिक संख्या की तुलना कर वे कुछ उदास हो गए।

सिकंदर उनके मनोभाव समझकर बोला, ‘‘मित्रो, संख्या या साधन नहीं जीतते हैं। मनुष्य जीतता है-मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व लड़ता है और वही जीतता है। भय को जीतो, मैं वादा करता हूं तुम मृत्यु को जीत लोगे।

दारा की पूर्व पराजय उसका वर्तमान है, वही वर्तमान उसके मोर्चे पर लड़ रहा है परंतु मेरे मोर्चे पर अतीत, वर्तमान और भविष्य-निर्मित मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व डटा है। आप भी ऐसा ही सोचें। आप भी सबसे बढ़कर धन्यतम हो जाएंगे।’’

प्राचीन असीरियन नगर निनेवह के खंडहरों के निकट गवागामीला (ऊंट का घर) में दोनों पक्षों की सेनाएं भिड़ीं। सिकंदर की सेना मुश्किल से 50 हजार रही होगी, किंतु सिकंदर की कुशल व्यूह रचना और घुड़सवार सैनिकों के चपल युद्ध कौशल के समक्ष पारसीकों को एक बार फिर घुटने टेकने पड़े। वे अंतिम रूप से पराजित हो गए। पर्वत श्रेणियों को पार करता हुआ दारा पूर्व की ओर भागकर एक्बटना (तेहरान के निकट हमदान) चला गया। एक्बटना से पीछे हटते हुए पारसीक सैनिक दारा को बंदी बनाकर ले गए। बैक्ट्रिया के क्षत्रप के अधीन इन सैनिकों की संख्या मात्र 300 थी।

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