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जीवनी/आत्मकथा >> सिकन्दर

सिकन्दर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10547

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जिसके शब्दकोष में आराम, आलस्य और असंभव जैसे शब्द नहीं थे ऐसे सिकंदर की संक्षिप्त गाथा प्रस्तुत है- शब्द संख्या 12 हजार...


सिकंदर के पिता फिलिप द्वितीय उसके प्रत्यासन्न आदर्श पुरुष थे। वह व्यावहारिक रूप से देखता था कि पिता गंभीर घावों की चिंता न करते हुए युद्धरत रहते और विजय-पर-विजय प्राप्त करते चले जाते। इससे तत्समय उसके व्यक्तित्व का प्रतिस्पर्धात्मक पक्ष उभरा कि पिता से आगे बढ़े। इसके कारण वह युद्ध में उद्दण्ड व्यवहार करने लगा। पिता की उपलब्धियों को कमतर करके बताने लगा। वह दुराग्रही हो उठा और पिता के आदेशों की उपेक्षा करने लगा। उसकी उग्र और हिंसक, आवेगशील और दुराग्रही प्रकृति उसके निर्णयों पर प्रभाव डालने लगी। कुल मिलाकर उसने अपने पिता से विवेक, युद्धकला, नेतृत्व और प्रशासन के गुण प्राप्त किए।

सिकंदर ज्ञान-प्राप्ति को सदैव उत्सुक बना रहा। उसे दर्शन से प्रेम था। सजग, समृद्ध और सुस्पष्ट स्मृति के कारण वह सदैव एक जिज्ञासु पाठक बना रहा। उसके व्यक्तित्व का एक प्रशंसनीय पक्ष भी था-बोधक्षम, तर्कशील, सुविचारित। वह प्रज्ञावान होने के कारण आशु-शिक्षु था। कहना न होगा कि उसके बौद्धिक पक्ष का विकास गुरु अरस्तू ने किया था।

माता-पिता-गुरु के अव्याहत आशीर्वचनों से अभिषिक्त होकर ही उसने अपनी संभावनाओं का तूर्यवाद सुना और अपने उत्कर्ष की ओर गतिशील हुआ।

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