जीवनी/आत्मकथा >> सिकन्दर सिकन्दरसुधीर निगम
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जिसके शब्दकोष में आराम, आलस्य और असंभव जैसे शब्द नहीं थे ऐसे सिकंदर की संक्षिप्त गाथा प्रस्तुत है- शब्द संख्या 12 हजार...
पोरस की हार
पुरु तथा सिकंदर की सेनाएं झेलम नदी के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों पर आ डटीं। बरसात के कारण झेलम में बाढ़ आ गई, अतः सिकंदर के लिए नदी पार करना कठिन था। दोनों पक्ष कुछ दिनों तक इंतजार करते रहे। एक रात जब भीषण वर्षा हो रही थी, बादलों का कज्जल वितान तना था, सिकंदर ने अचानक अपनी सेना को नदी के पार उतार दिया। पुरु की सेना विशाल थी। इसमें 4 हजार अश्वारोही सैनिक, 3 सौ रथ, अनगिनत लड़ाकू हाथी तथा 30 हजार पदाति सैनिक थे। पुरु ने अपने पुत्र को यूनानी सेना का मार्ग अवरुद्ध करने भेजा। उसके मारे जाने पर वह स्वयं मैदान में आ डटा। भारतीय सैनिक विशाल धनुषों से युक्त थे जो जमीन पर रखकर चलाए जाते थे। पानी बरस जाने के कारण, फिसलन होने से ये, धनुष बेकार हो गए। भारतीय हाथी तीव्रगामी मकदून अश्वों का सामना नहीं कर सके और पलटकर अपनी सेना को रौंदते भाग निकले। पोरस की अधिकतर सेना पलायन कर गई लेकिन अपने विशालकाय हाथी पर बैठकर पुरु युद्ध करता रहा। जब विजय की आशा क्षीण हो गई तो नौ घाव खाए पुरु ने अपने हाथी मोड़ दिए।
पुरु को वापस जाता देख सिकंदर ने आम्भी को आत्मसमर्पण का संदेश लेकर उसके पास भेजा। देश-द्रोही आम्भी को अपने सामने देखकर पुरु की भौहें चढ़ गईं और उसने उस पर एक भाले से वार कर दिया। आम्भी किसी प्रकार बच कर भाग निकला। इस बार सिकंदर ने एक दूतमंडल भेजा जिसमें पुरु का मित्र मेरुष भी था। उसके समझाने पर पुरु आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो गया। यूनानी सेना ने बंदी बनाकर उसे सिकंदर के सामने पेश किया।
राजोचित भाव और तेजस्विता से मंडित मुख लिए पुरु उस शेर की तरह विवश खड़ा था जिसके पैर में कांटा गड़ गया हो। अपमान का विष पचाकर वह चुप था। अपनी दयनीय दशा पर वह स्वयं दयार्द्र हो उठा। प्रथम ही दृष्टि में सिकंदर साढ़े छह फुट के बलिष्ठ प्रौढ़ के प्रखर, परिष्कृत, प्रभावशाली व्यक्ति से प्रभावित हो उठा। क्षणांश में उसने सोच लिया कि वह सम्मान सहित इस वीर पुरुष को सहयोगी मित्र के नाम पर ऐसा मोहरा बनाएगा जो भारत विजय में उसकी सहायता करेगा।
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