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जीवनी/आत्मकथा >> सुकरात

सुकरात

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :70
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10548

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पढिए सत्य और न्याय की खोज करने वाले सुकरात जैसे महामानव की प्रेरक संक्षिप्त जीवनी जिसने अपने जीवन में एक भी शब्द नहीं लिखा- शब्द संख्या 12 हजार...


सुकरात ने पुस्तकाध्यक्ष को सही राह दिखाने के लिए धन्यवाद दिया और वादा किया कि वे उनकी नसीहत सदा ध्यान में रखेंगे।

सुकरात ने प्रथमतः यूनान के बाहर के उन दार्शनिकों को पढ़ना प्रारंभ किया जिनके विचारों ने देश को, देश की मेधा को समय-समय पर प्रभावित किया था। ये वे यूनानी दार्शनिक थे जो एशिया से जुड़े आयोनिया प्रदेश में निवास करते थे। इन दार्शनिकों को तत्कालीन विकसित पूर्वी संस्कृतियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए अधिक अवसर प्राप्त थे। (पाश्चात्य जगत जिस यूनानी संस्कृति में अपनी जडे़ खोजता है वह यूरोपीय से कहीं अधिक एक एशियाई संस्कृति थी।)

सुकरात देखते हैं कि पूर्व यूनानी मेधा बड़ी बेचैनी से मूल तत्व (आरखी) की खोज में जुटी थी। आयोनिया के दार्शनिक थेलीज (625 ई0पू0) जिसे यूनानी दर्शन का पिता कहा जाता है, विश्व का मूल तत्व ‘जल’ को बताया। अवश्य ही थेलीज ने बेबीलोनियन मिथक के बारे में सुना होगा जिसमें सृष्टि के मूल तत्व जल की कल्पना देवी तियामत के रूप में की गई है। (सृष्टि के उत्पत्ति के पूर्व जल के अस्तित्व की कल्पना ऋग्वेद तथा शतपथ ब्राह्मण में भी मिलती है।)  

थेलीज के शिष्य अनाक्सीमेंडर (611-547 ई0पू0) को अपने गुरु की अवधारणा से संतोष नहीं हुआ। उसने ‘अव्यक्त-अनंत’ को जगत् के मूल में स्थित बताया। पर यह सिद्धांत अधिक टिक नहीं पाया। अनाक्सीमेंडर के शिष्य अनाक्सीमैनीस (588-524 ई0पू0) ने ‘वायु’ को मूल तत्व माना। निश्चय ही यह वायुतत्व कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। श्वास, हवा, भाप तथा कुहरा भी वायु तत्व हैं। आत्मा में उसी वायु तत्व का प्रभाव है।

लघु एशिया के हेराक्लीटस (535-475 ई0पू0) ने ‘अग्नि’ को मूल तत्व का स्थान दिया। वायु विरल होने पर अग्नि का रूप धारण कर लेती है। अतः अग्नि, वायु और जल दोनों से शक्तिशाली है। किसी भी पदार्थ में अग्नि की मात्रा ही उसके जीवंत होने का प्रमाण है और उसकी न्यूनता मृत्यु का द्योतक है। जगत की सारी वस्तुएं अग्नि से उत्पन्न होती हैं और इसी में विलीन हो जाती हैं।

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