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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

पहला बयान

 

''रुक जाओ गुरु.. रुक जाओ!'' घोड़े को एड़ लगाकर अपनी पूर्ण शक्ति से चीखा विकास।

''विजय.. रुक जाओ, बेटे.. रुक जाओ...!'' ठाकुर निर्भयसिंह अपना घोड़ा उससे आगे निकालते हुए चीखे।

''विजय, तुम्हें मेरी कसम. ..रुक जाओ!'' रघुनाथ का घोड़ा भी उसके साथ था।

''भैया.. भैया!'' घोड़ा दौड़ाती हुई अपनी पूरी शक्ति से चीख रही थी रैना---''रुक जाओ.. हमारी बात सुनो.. हम तुम्हें नहीं रोकेंगे-लेकिन हमें भी साथ ले लो.. भैया.. सुनो.. रुक जाओ।''

सम्पूर्ण जंगल विकास, ठाकुर निर्भयसिह, रैना, रघुनाथ और अजय - अर्थात ब्लैक ब्वाय की चीखों से गूंज रहा था। पांचों के घोड़े समीप के अन्तराल से भाग रहे थे। उनसे आगे दूर-बहुत दूर, एक मशाल चमक रही थी। मशाल को लिये वह इन्सान, जिसका ये पांचों इस समय पीछा कर रहे थे---किसी स्वस्थ घोड़े पर सवार होकर अपने प्राण-पण से दौड़ा चला जा रहा था। जंगल पूर्णतया अंधकार की चादर से लिपटा हुआ था। अभी-अभी भीषण वर्षा अपना प्रकोप दिखाकर शान्त हुई थी, अत: जंगल की धरती बुरी तरह कीचड़ में बदल चुकी थी। घोड़ों के खुर उस कीचड़ से टकराकर बड़ी विचित्र-सी ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे। वृक्षों के गर्भ से अभी तक पानी झड़ रहा था।

गगन पर मेघ अपना पड़ाव डाले हुए थे।

रह-रहकर जोर से बिजली कड़क उठती।

समूचा जंगल कांप उठता।

सबके चेहरों पर गहन चिन्ता और तनाव के भाव थे।

और उन सबसे आगे हाथ में मशाल लिये घोड़े को तीव्र वेग से भगाने वाला था विजय-हां, वह विजय ही तो था.. भारत का माना हुआ जासूस.. सीक्रेट सर्विस का चीफ। इस समय उत्तेजना के कारण विजय का चेहरा लाल सुर्ख था। मस्तिष्क-में जैसे कोई जोर-जोर से हथौड़े मार रहा था।

उसे लग रहा था.. जैसे कोई पुकार रहा है. ..आंखों के समक्ष एक नारी का मुखड़ा तैर रहा था.. बेहद सुंदर नारी.. जैसे वह विजय को पुकार रही थी।

उसके कानों में पीछे से उसके परिचितों की आवाजें जंगल को फाड़कर आ रही थीं। किन्तु सबसे शक्तिशाली उस नारी की चीख थी जिसका मुखड़ा इस समय विजय की आखों के समक्ष नृत्य कर रहा था। विजय बेतहाशा भागता जा रहा था.. अपने पिता इत्यादि से पीछा छुड़ाकर वह उस नारी की बांहों में समा जाना चाहता था।

लाल आखें.. कठोर चेहरा.. मानो उसके दिमाग में कोई प्रचण्ड तूफान उठ खड़ा-हुआ हो।

जलती हुई मशाल उसके हाथ में थी और वह अपनी पूरी ताकत से दूर निकल जाना चाहता था।

एकाएक उसके घोड़े के दोनों अग्रिम पैर दलदल में धंस गए। घोड़ा भयानक ढंग से हिनहिनाकर एकदम रुक गया। विजय अपना बैलेंस नहीं सम्भाल सका और घोड़े की पीठ से उछलकर धड़ाम से दूर जा गिरा। इसे उसका सौभाग्य ही कहा जाएगा कि वह दलदल में नहीं, केवल कीचड़युक्त धरती पर जा गिरा था। उसके हाथ से छूटकर मशाल हवा में उछली और दूर जा गिरी।

उसी क्षण-

घोड़े के टापों की ध्वनि और विकास इत्यादि की आवाजें उसके करीब आ गईं।

उधर सबसे आगे विकास था-विजय की भांति वह भी घोड़े की पीठ से उछला और वायु में लहराकर सीधा विजय के करीब गिरा। रैना, रघुनाथ, अजय और निर्भयसिंह दलदल के दूसरी ओर ही रुक गए.. उनसे पाँच कदम आगे ही दलदल थी.. उसी दलदल में विजय और विकास के घोड़े फंसे हुए बुरी तरह हिनहिना रहे थे। वे दोनों उनकी पीठ से उछलकर दलदल के पार जा गिरे थे।

चारों ने दलदल के पार मशाल के प्रकाश में देखा।

विजय और विकास एक झटके के साथ आमने-सामने खड़े हो गए।

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