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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''शाबाश बेटे-मुझे तुम पर गर्व है।'' कहने के साथ उसने बागीसिंह की पीठ थपथपाई.. बागीसिंह के जाते ही अधेड़ ने दरवाजा बन्द कर लिया और साथ ही उसकी आखों में असाधारण चमक उत्पन्न हो गई, वह बुदबुदाया-

 ''मूर्ख - अलफांसे को गिरफ्तार करके लाया था, ये नहीं पता कि यहां तेरा बाप बैठा है।'' कहने के साथ ही वह पत्थर के उसी चबूतरे की ओर बढ़ गया, जिस पर बागीसिंह ने अलफांसे को बैठाकर धोखा दिया था। उसने चबूतरे के एक उभरे भाग पर लात मारी और उसका ऊपरी पत्थर - पुन: हट गया। उसने झांककर नीचे देखा.. नीचे एक कोठरी में पड़ा हुआ अलफांसे उसी ओर देख रहा था।

इससे आगे की अधेड़ की कार्यवाही हम आगे लिखेंगे, फिलहाल हम जल्दी से बाहर निकलकर बागीसिंह की कार्यवाही देखते हैं। उसके पिता के तेवर तो आप देख ही चुके हैं। हमारा ख्याल है कि आप लोग समझ ही गए होंगे कि बागीसिंह अपने पिता से स्वयं एक बड़ा धोखा खा गया। कम-से-कम हम तो ऐसी उम्मीद नहीं करते, तो फिर बागीसिंह ने क्या किया? अगर हम उसके पिता में ही अटके रहे तो वह दूर निकल जाएगा, आइए, जल्दी से बाहर निकलकर बागीसिंह पर नजर रखते हैं। वो देखिए-बागीसिंह तेजी से बाग में बढ़ा चला जा रहा है।

उसका रुख इस बार पूरब की ओर है, बागीसिंह लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ बाग में बनी संगमरमर की एक आकृति के पास रुक गया। एक बार उसने अपने चारों ओर छाए सन्नाटे और अन्धकार को घूरा। संगमरमर की यह मूर्ति किसी चील की है। चील कुछ ऐसी आकृति में है जैसे पंख फैलाकर आकाश में उड़ रही हो। बागीसिंह अपने बटुए से एक बारीक-सा तार निकालता है और तार को वह चील की दोनों चोंचों में. देकर विशेष दंग से घुमा देता है। बाग की धरती के नीचे गड़गड़ाहट होती है और संगमरमर की चील के पंख फड़फड़ाने लगते हैं।

इसके साथ ही चील का पेट फटने लगता है।

बागीसिंह तुरन्त उसमें समा जाता है। चील के पेट से लेकर अन्दर नीचे तक लोहे की सीढ़ी बनी है। वह अन्धकार में ही अनुमान के आधार पर नीचे उतरने लगता है। जैसे ही वह सीढ़ी के पांचवें डण्डे पर पैर का दवाब डालता है, एक गड़गड़ाहट के साथ चील अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती है। उसके पेट में उभरा रास्ता भी समाप्त हो जाता है।

बागीसिंह एक सुरंग में पहुंच जाता है।

बटुए से दूसरी मोमबत्ती निकालकर जलाता है और तेजी से सुरंग में आगे बढ़ जाता हे। सुरंग में कोई तीन फर्लांग का सफर तय करने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर रुक जाता हे, जहां सुरंग बन्द है - पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे की एक बहुत बड़ी दीवार से। मोमबत्ती के प्रकाश में वह लोहे की दीवार में उभरी एक खूंटी देख लेता है। उसी खूंटी को पकड़कर वह उसे शक्ति के साथ नीचे झुकाता है।

लोहे की दीवार में एक दरवाजा पैदा हो जाता है।

बागीसिंह दरवाजे के नजदीक पहुंचा तो देखा - दरवाजे के पार लोहे के कमरे में अलफांसे खड़ा इसी तरफ देख रहा है। उधर उसे सामने देखते ही अलफांसे चौक पड़ा। वह दो कदम रखकर तेजी से उसके पास आया और बोला-''ये क्या हरकत हुई?''

''शी...!'' बागीसिंह ने तेजी से अपने होठों पर उंगली रखकर शान्त रहने का संकेत किया और फिर धीरे से बोला-''मिस्टर ''आप यकीन करें मैं आपका दुश्मन नहीं हूं मुझ पर इतनी कृपा और आप कीजिए कि फिलहाल यहां मत बोलिए, आप मेरे साथ आइए - मैंने जो भी कुछ किया है, वह आप ही की भलाई के लिए करना बहुत आवश्यक हो गया था।''

अलफांसे जैसे व्यक्ति की बुद्धि चकराकर रह गई।

वह इन अजीबो-गरीब घटनाओं के अर्थ नहीं समझ पा रहा था। कदाचित अलफांसे के जीवन में यह पहला अवसर था जब वह काफी देर तक घटनाओं के बीच रहता हुआ भी उनका सबब, उद्देश्य इत्यादि कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। इसी व्यक्ति ने उसे धोखा देकर इस लोहे के कमरे में डाल दिया था। उस लोहे के कमरे से फरार होने का वास्तव में कोई मार्ग नहीं था, किन्तु अब कुछ देर बाद वही व्यक्ति दूसरे रास्ते से उसे लेने चला आया था। अलफांसे अभी अपने विचारों में उलझा हुआ ही था कि बागीसिंह ने खूंटी ऊपर करके लोहे की दीवार में उत्पन्न दरबाजा बन्द कर दिया और अलफांसे को लेकर सुरंग में वापस चल दिया। कुछ दूर निकल आने के बाद अलफांसे ने पूछा-''अब तो बोल सकता हूं?''

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