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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

अब साहबान की कोठरी में अन्धकार हो जाता है।

कुछ देर वे अंधेरे में ही अपने बिस्तर पर लेटे रहते हैं। रात का एक पहर बीत चुका है। वे चुपचाप अपने स्थान से उठते हैं। अंधेरे में टटोलकर चिराग और चकमक उठाकर धोती की लांग में छुपा लेते हैं। सावधानी के साथ चारपाई की बाहीं निकाल लेते हैं। और स्नानगृह की ओर चल देते हैं। स्नानगृह में पहुंचकर वे किवाड़ अन्दर से बन्द कर लेते हैं और चकमक द्वारा चिराग जला लेते हैं।

स्नानगृह की धरती से अपनी शक्ति का प्रयोग करके एक पत्थर निकालकर एक तरफ रख देते हैं। अव धरती में एक खोखला भाग उभर आता है। वे महाशय उसी में उतर जाते हैं। अब हमारी समझ में आया कि यह एक सुरंग है, जिसे ये महाशय उसी दिन से तैयार करने में लगे हुए हैं, जिस दिन से इस कैद में हैं। एक हाथ में चिराग और दूसरे हाथ में चारपाई की बांही लिये ये महाशय छोटी-सी सुरंग में रेंगते-से आगे बढ़ते हैं। थोड़ी ही देर में उस स्थान पर पहुंच जाते हैं जहां तक ये सुरंग तैयार कर चुके हैं।

हमारे ख्याल से ये सुरंग तीस हाथ लम्बी तैयार कर चुके हैं।

चिराग को एक तरफ रखकर वे चारपाई की वांही से सुरंग खोदने लगते हैं। जब काफी मिट्टी हो जाती है तो उसे सुरंग की दोनों दीवारों से सटाते जाते हैं। हालांकि इस काम में उन्हें बुरी तरह पसीना आ जाता है, किन्तु उनके दिमाग से इस कैद से भागने की धुन है, अत: प्रयत्नशील है। इसी प्रकार उन्हें सारी-रात बीत जाती है।

उस समय सुबह के पांच बजे हैं, जब वे सुरंग को बीच में छोड़कर स्नानगृह में आ जाते हैं। वही पत्थर उठाकर पुन: सुरंग का रास्ता ढंक देते हैं और बांही का वह किनारा जिस पर मिट्टी लगी हुई है, अच्छी तरह धोते हैं। उसके बाद चिराग बुझाकर कोठरी में आते हैं और बड़ी कारीगरी के साथ खाट की बांही वह पुन: पहले की भांति बानों (रस्सी ) में लगा देते हैं।

इसके बाद वे चारपाई पर इस प्रकार लेटते हैं जैसे लम्बे समय से सो रहे हों।

हमारे प्रेमी पाठक समझ गए होंगे कि इन महाशय की यह प्रत्येक रात की क्रिया है।

हम पाठकों का अधिक समय बर्बाद न करके दूसरी रात का किस्सा लिखते हैं। प्रति रोज की भांति ही वह चिराग और बाहीं लेकर सुरंग के अन्दर पहुंच जाते हैं। उस समय रात का अन्तिम पहर चल रहा है, जब सुरंग पार निकल जाती है।

महाशयजी तुरन्त चिराग बुझा देते हैं।

वे सुरंग में बैठे-बैठे ऊपर देखते कोई प्रकाश नहीं है। अर्थात सुरंग किसी अंधेरे भाग में ही निकली है। अब वे महाशय धीरे से अपना सिर निकालकर सुरंग से बाहर देखते हैं।

सुरंग एक बाग में आकर निकली थी और बाग में पूरी तरह अन्धकार और सन्नाटे का साम्राज्य था। अगर थोड़ा-बहुत प्रकाश था तो वह केवल आकाश पर चमकने वाले सितारों का था। आसमान एकदम साफ था और उस पर झिलमिलाते नन्हे-नन्हे सितारे बड़े प्यारे लग रहे थे। अब यह बड़े आराम से सुरंग से बाहर निकल आए और बाग में खड़े होकर ध्यान से चारों ओर देखने लगे। कदाचित महाशयजी उस बाग को पहचानने और उसमें से बाहर निकलने का मार्ग खोजने के चक्कर में थे। ये महाशयजी इस बाग को पहचान चुके थे।

क्यों पहचान चुके थे, इसका रहस्य हम आगे चलकर उसी समय प्रकट करेंगे, जिस समय इन महाशयजी का किस्सा लिखा जाएगा। वैसे हमारी वह पंक्ति प्यारे पाठकों के लिए एक सूत्र भी है। पाठक समझने का प्रयास करें कि ये महाशयजी कौन व्यक्ति हैं?

खैर - हम देखते हैं कि महाशयजी इस प्रकार आगे बढ़ जाते हैं, मानो वे यहां रहते हों। वे बाग के दक्षिण की ओर बढ़ते हैं। सारा बाग ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से घिरा हुआ है। कुछ ही देर बाद वे एक खास पहाड़ी के नीचे टटोल-टटोलकर कुछ तलाश करने लगते हैं। कुछ ही देर के बाद उन्हें एक खटका मिल जाता है। वे शक्ति लगाकर खटके को दबा देते हैं।

लाभ ये होता है कि समीप की पहाड़ी में एक दरवाजा बन जाता है। वे उसी में समा जाते हैं। अन्दर जाकर वे उसी प्रकार का एक अन्य खटका दबाकर मार्ग-बन्द कर देते हैं। अब इस लम्बी-चौड़ी गुफा में इस कदर अन्धकार छा जाता है कि हाथ को हाथ सुझाई न दे।

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