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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

और इन सब वस्तुओं का प्रयोग वह बहुत पहले से बखूबी जानते थे। जब धुआं साफ हुआ तो हमारे महाशयजी के अतिरिक्त सभी ऐयार धरती पर लम्बे पड़े हुए अचेतना के संसार में घुमड़ रहे थे। इस समय महाशयजी के दिमाग में अजीब-सी शरारत आ रही है। वे एक-एक करके सबके कपड़े उतार देते हैं। कुछ ही देर बाद वे उसी भेष में थे, जिसमें वे पैदा हुए थे। बटुए में से निकालकर उन्होंने उन सबके जिस्म पर काली स्याही भी पोत दी और कमरे की दीवारों से उन्हें इस प्रकार सजाकर खड़ा कर दिया, मानो पुतले खड़े हों।

महाशयजी ने बटुए से कलम-दवात निकालकर एक कागज पर कुछ लिखा और कमरे में छोड़ दिया।

सारे कार्यों से निवृत होकर वे बाहर आ गए।

अब सुबह होना चाहती थी।

वे महल से बाहर की ओर बढ़ रहे थे। कई स्थानों पर उन्हें उमादत्त के सिपाही और लौंडिया इत्यादि मिले किन्तु किसी से कोई बात न करते हुए वे आराम से महल के बाहर निकल गए। रूपलाल समझकर किसी ने उनके मार्ग में दखल नहीं दिया। उस समय रात्रि के अन्तिम पहर का एक चन्दा शेष था, जब वे उमादत्त के शहर चमनगढ़ में घूम रहे थे। एकाएक वे बस्ती के एक मकान में बन्द दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे।

कदाचित वे जानते थे कि कि यह मकान उमादत्त के खास ऐयार विक्रमसिंह का है।

कुछ देर बाद मकान का दरवाजा खुला। महाशयजी सब जानते थे। दरवाजा खोलने वाली एक कम उम्र की लड़की थी। वह सुन्दर और भोलीभाली थी। महाशयजी जानते थे कि वह विक्रमसिंह की लड़की कुन्ती है।

'अरे-चाचाजी आप-सुबह-सुबह?'' कुन्ती उन्हें अन्दर ले गई। वे विक्रमसिंह की पत्नी चन्दारानी से मिले, चन्दारानी ने उन्हें इज्जत् से बैठाया। औपचारिक बातों के पश्चात महाशयजी ने पूछा--''विक्रमसिंह कहां गए हैं सुबह-सुबह?''

''तुम्हें नहीं पता भैया?'' चन्दारानी ने कहा--''क्या कहूं, मैं तो परेशान हूं - मैं तो अब हर औरत को यही राय दूंगी कि कभी किसी ऐयार से शादी न करे, हम यहां बैठे रहते हैं और ऐयार लोग महीनों-महीनों के लिए गायब हो जाते हैं। भला ये भी कोई काम हुआ--पति से अलग रहते-रहते हम पर क्या गुजरती है यह कोई हमसे ही पूछे - भैया - मैं तुम्हें यही राय दूंगी कि तुम कभी शादी मत करना - वरना तुम्हारी पत्नी भी हमारी तरह ही उदास बैठी तुम्हारी राह देखती रहेगी और तुम महीनों-महीनों अपनी ऐयारी के चक्कर में लगे रहोगे। अगर शादी करो तो ये ऐयारी छोड़ देना।''

''क्या बात है, भाभी - बहुत परेशान हो?'' महाशयजी ने मुस्कराकर पूछा।

''बात क्या है - कहते थे अब उन्हें कुछ दिन के लिए बख्तावरसिंह बनना है - उस दिन से गए हैं और आज तक दर्शन नहीं।''

'ऐयारी का काम ही ऐसा है, भाभी।'' मुस्कराकर महाशयजी बोले और अपने इन शब्दों के साथ ही उन्होंने बटुए से वही गेंदनुमा बम निकाला और कमरे की धरती पर फोड़ दिया। सारे घर में एकदम धुआं भर गया।

धुआं साफ होने पर महाशयजी ने दोनों की गठरी बांधी और पीठ पर लटकाकर जंगल की राह ली। कुछ ही देर पश्चात वे जंगल में बने एक कुएं के पास पहुंचे। एक बार कुएं में झांका और देखा कि कुआं अंधकार की चादर में लिपटा हुआ है।

उन्होंने पीठ से वह गठरी उतारी, जिसमें चन्दारानी और कुन्ती बंधी हुई थीं, और कुएं में फेंक दी।

गठरी नीचे कुएं के पानी से टकराई और धड़ाम की आवाज ऊपर हमारे महाशयजी के कानो में भी पड़ी। उस समय हम भी चमत्कृत रह गए जब महाशयजी ने भी कुएं में छलांग लगा दी। हमने महाशयजी को उस कुएं में कूदते साफ देखा था।

इस समय हम भी केवल महाशयजी के पानी से टकराने की आवाज ही सुन सके। एक बार को तो हमने भी हिम्मत करी कि हम भी कुएं में कूद पड़ें किन्तु साहस न हुआ - हम कोई ऐयार तो है नहीं जो इस तरह के खतरनाक काम करते फिरें।

हम कुएं के नजदीक पहुंचे - सोचा कि झांककर कुएं का हाल देखेंगे। वहां अंधकार था। एक बार को हमारे दिल में बड़ा मलाल आया - हम सोचने लगे कि अगर हमारे पास भी इस समय ऐयारी का बटुआ होता तो हम मोमबत्ती जलाकर कुएं का हाल देखते।

अत: मजबूरी है - कुएं का हाल नहीं देख सकते - कुएं में क्या हुआ हम नहीं जानते - अब क्या लिखें?

वैसे भी पाठक जानते हैं कि अंधेरे में कुछ भी देख पाना किसी के लिए भी संभव नहीं होता।

० ० ०

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