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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''तुम्हारी बहन कहां है?'' दलीपसिंह ने प्रश्न किया।

''गौरव से पूछ रहे हो?''

'कैदखाने में डालकर इस पर उस समय तक कोड़े. बरसाते रहो, जब तक कि यह अपनी बहन के बारे में न बता दे।'' क्रोध में दलीपसिंह गुर्राया-''हम् सुबह इससे बात करेंगे।''

''जो हुक्म, सरकार।'' बलवंत ने कहा।

दलीपसिंह चले गए।

बलवंतसिंह ने अपने अन्य सिपाहियों की मदद से गौरव की गठरी बनवाई और कैदखाने में डाल दिया। जल्लाद को कोड़े मारने का आदेश देकर वह बाहर आया। महल से बाहर निकलकर उसने देखा.. सारे पहरेदार अपने-अपने स्थान पर थे। लम्बे-लम्बे कदमों के साथ बलवंतसिंह बढ़ा चला जा रहा था, मानो किसी निश्चित स्थान पर वह जल्दी-से-जल्दी पहुंचना चाहता हो। कुछ ही देर बाद वह एक निर्जन से स्थान पर पहुंच जाता है। एक बार वह ध्यान से अंधेरे में जहां तक देख सकता है, देखता है। अपने आसपास किसी प्राणी का आभास न पाकर वह उस निर्जन स्थान पर खड़े एक खण्डहर में प्रविष्ट हो जाता है।

हालांकि खण्डहर ऊबड़-खाबड़ है-दीवारें गिर चुकी हैं। टूटी-फूटी खड़ी हुई दीवारों पर घास उग आई है। धरती पर पड़े मलबे में भी लम्बी-लम्बी झाड़ियां खड़ी हैं - किन्तु बलवंत झाड़ियों के बीच से इस प्रकार आगे बढ़ता है, मानो वह यहां आने का अभ्यस्त रहा हो। कुछ देर बाद वह एक ऐसी कोठरी के पास पहुंच जाता है, जिसकी दीवारें और छत कायम तो हैं, परन्तु सब कुछ खस्ता हालत में। प्लास्टर उतर चुका है। छोटी-छोटी ईंटें चमक रही हैं। कमन्द लगाकर बलवंत उसी कोठरी की छत पर पहुंच जाता है। छत के दाहिने कोने में एक लोहे की छोटी सी गुड़िया खड़ी है। शक्ति लगाकर बलवंत उस गुड़िया को ऊपर खींच लेता है।

उसके ऊपर खिंचते ही छत के बीचोबीच एक मोखला बन गया।

बलवंत उसी तरफ बढ़ गया।

नीचे कमरे में चिराग की रोशनी हो रही थी। मोखले में से बलवंत नीचे कमरे में कूद गया। उसके कूदते ही कमरे में जंजीरों से बंधा एक व्यक्ति चौंक पड़ा। मोटी-मोटी जंजीरों में बंधा वह व्यक्ति कमरे की जमीन पर औंधे मुंह पड़ा था। उस व्यक्ति ने चौंककर चेहरा ऊपर उठाया - उसकी दाढ़ी और मूंछें इतनी बढ़ चुकी थीं कि उनके पीछे वास्तविक चेहरा देखना सम्भव न था। सारे कपड़े फटे हुए थे और विभिन्न स्थानों पर खून भी लगा हुआ था।

''तुम, जलील आदमी!'' कैदी बलवंत को देखते ही चीखा-''तुम्हें तुम्हारे पापों की सजा जरूर मिलेगी।''

वह उसे अपने ही नाम से सम्बोधित करते हुए कहता-''सुना है मुकरन्द को प्राप्त करने के लिए कोई भी पाप, पाप नहीं कहलाता। मैं भी तो केवल इसीलिए बलवंत बना हूं।''

'तुम मर जाओगे लेकिन तुम्हें मुकरन्द प्राप्त नहीं होगा।'' कैदी चीख पड़ता है।

''एक खुशखबरी सुनाने आया था।'' बलवंत मुस्कराता हुआ कहता है-''अभी-अभी मैंने गौरव को कैद कर लिया है।''

'तुम...!'' कहकर हंसता है कैदी-''और गौरव को गिरफ्तार कर सको! शायद तुम गौरव को जानते नहीं हो, तुम जैसे सौ ऐयार भी मिलकर उसे नहीं पकड़ सकते। वह तूफान है। ध्यान से देखना.. वह गौरव नहीं होगा।''

'वह भी महल में मुकरन्द चुराने ही आया था।' कैदी हंसा फिर आगे बोला-''मुकरन्द तो उसे भी नहीं मिलेगा।''

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