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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

आठवाँ बयान


टुम्बकटू, हुचांग, माइक और बागारोफ हैरत के साथ उस हंस को देख रहे थे। कुछ देर पूर्व उन्होंने हंस की जो हरकत देखी थी, उसे देखकर चारों की बुद्धि चकरा गई थी। उनमें से किसी को स्वप्न में भी इस प्रकार का गुमान नहीं था कि संगमरमर का साधारण-सा हंस इस प्रकार की हरकत करेगा। अभी कुछ ही देर पूर्व उन चारों ने देखा था कि ये हंस विद्युत गति से झपटकर जेम्स बांड को निगल गया था।

कुछ भी न करने की स्थिति में चारों हक्के-बक्के से खड़े देखते रह गए।

अभी तक उनमें से किसी को एक-दूसरे की ओर देखने तक का होश नहीं आया था। सभी की दृष्टि स्थिर खड़े हुए संगमरमर के हंस पर जमी हुई थी।

वह इस प्रकार निर्दोष की भांति खड़ा हुआ था कि एक बार को उन्हें भ्रम हुआ कि उन्होंने जो देखा है------ कहीं वह गलत तो नहीं है!

''बड़े मियां।'' टुम्बकटू जैसा व्यक्ति भी आश्चर्य में डूबा हुआ बोला- ''ये क्या गजब हुआ?''

''मुझे लगता है कि यहां कोई तिलिस्म का चक्कर है।'' हुचांग उसी हंस को घूरता हुआ बोला।

''अबे चीनियों की दुम।'' बागारोफ बौखलाता-सा बोला- ''तुम्हारा लाउडस्पीकर जैसा मुंह बन्द ही अच्छा लगता है। अबे ये तिलिस्म आदम जमाने की बातें हैं। इस आधुनिक युग में तिलिस्म की बात करोगे, तो फिर चीन से निकाल दिए जाओगे।''

''कुछ भी हो, चचा।'' बीच में माइक बोला- ''माना कि विज्ञान काफी तरक्की कर चुका है और तिलिस्म अथवा भूत-प्रेत जैसी वस्तुओं को व्यर्थ मानता है। काल्पनिक कहानियां कहते हैं - मगर भारत में निकला हुआ जयगढ़ का खजाना निश्चय ही इस बात की ओर संकेत करता है कि वास्तव में तिलिस्म का भी एक जमाना था।

''आज के वैज्ञानिक चाहे उसे तिलिस्म न कहें कुछ और कह दें - परन्तु है यह तिलिस्म ही। वैसे भी तिलिस्म के विषय में लोगों के सोचने का ढंग गलत है। लोग सोचते हैं कि तिलिस्म में किसी प्रकार का जादू होता है - किन्तु यह गलत है। यह सब दिमाग का तथा कारीगरों की कारीगरी का खेल होता है - आज भी हम गुप्त रास्ते देखते हैं - यह सब तिलिस्म का ही छोटा-सा अंश है।''

''देख बे अमेरिकन -- साला ये हंस बांड को निगल गया और फिर एक तू है...कि जो बस तिलिस्म पर ही भाषण देने लगा।''

इसी प्रकार की कुछ बातें करने के पश्चात् उन्होंने निश्चय किया कि हंस को नजदीक से देखा जाए कि क्या है। इस बार टुम्बकटू आगे बढ़ा।

हंस के अत्यन्त करीब जाकर वह अपनी पैनी दृष्टि से हंस को घूरने लगा। हंस में किसी प्रकार की विशेषता वाली बात नजर नहीं आती थी। वह संगमरमर का बनाया हुआ हंस था। केवल मूर्तिकार की कारीगरी की प्रशंसा की जा सकती थी। टुम्बकटू ने पूरी तरह से सतर्क होकर हंस पर धीरे से हाथ रखा। कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई.. हंस उसी प्रकार स्थिर खड़ा रहा। टुम्बकटू के साहस में वृद्धि हुई, उसने धीरे-धीरे अपना हाथ हंस की चोंच की ओर बढ़ाया। हाथ चोंच से स्पर्श होते ही-

मानो कयामत आ गई।

छलावे जैसी फुर्ती वाला टुम्बकटू भी खुद को नहीं बचा सका। हंस के पिछले भाग में एकदम हवा निकलने जैसी आवाज हुई - मानो किसी हवा से भरे ब्लैडर का वॉल्व हटा दिया गया हो। एकदम ढेर सारा धुआं तीव्र वेग से निकलकर टुम्बकटू के ऊपर आ गिरा। ठीक इस प्रकार मानो यह धुआं किसी ने पिचकारी से डाला हो। एक क्षण तक तो टुम्बकटू समझा ही नहीं पाया कि ये अचानक क्या हो गया। बस.. यही क्षण उसके लिए शिकस्त का कारण बना। वह नहीं जान सका कि इस धुएं की लपेट में माइक, हुचांग और बागारोफ भी आए अथवा नहीं। उसे तो केवल इतना मालूम हुआ कि यह धुआं गजब की बेहोशी पैदा करने वाला था और अपनी इच्छा शक्ति के बावजूद भी टुम्बकटू स्वयं को बचा नहीं सका।

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