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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'केवल यही कि मैं तुमसे एक हजार सोने की मोहरें कमा सकता हूं।'' पिशाच आराम से बोला- ''तुम तो जानते हो कि पिशाच सबसे ज्यादा सोने की मोहरों से प्यार करता है, केवल एक हजार सोने की मोहरों में मैं तुम्हें ये बता सकता हूं कि मैंने मेघराज के कान में क्या कहा था और पांच हजार मोहरों में मैं तुम्हें चंद्रप्रभा और रामरतन दे सकता हूं। ये समझो कि इस समय वे दोनों मेघराज की नहीं, बल्कि मेरी कैद में हैं।''

''किन्तु तुम तो मेघराज के दोस्त बन गए थे?'' विक्रमसिंह ने कहा।

'मूर्ख है मेघराज जो पिशाच को अपना दोस्त समझता है।'' पिशाच ने कहा- ''उसे ये तो पता नहीं है कि पिशाच मोहरों के अलावा किसी का दोस्त नहीं है। मैं तो साफ कहता हूं -- मैं उस हर आदमी के साथ दगा करता हूं जो मुझे सोने की मोहरे नहीं देता-- जो मोहरें देता है, उसका काम मैं ईमानदारी से करता हूं।''

'इसका मतलब तो ये हुआ कि तुम पके दुष्ट हो।'' विक्रमसिंह क्रोधित हो उठा- ''मोहरों के पीछे दोस्तों की जान ले लो।''

''बिल्कुल ले सकते हैं और एक की हम अभी लेकर दिखाएंगे।'' पिशाच बिना विचलित हुए बोला- ''बख्तावर क्या तुम मेरी एक बात थोड़े तखलिए (एकांत) में चलकर सुन सकते हो - बात तुम्हारे फायदे की है।''

'तखलिए में क्यों - यहां सबके सामने कहो।'' बख्तावर अभी पिशाच की नीयत नहीं समझ पाया था।

बात तुम्हारे फायदे की है बख्तावर। पिशाच ने कहा- ''सबके सामने कहने से उसमें से तुम्हारा फायदा निकल जाएगा, सुनना चाहते हो तो सुनो, वर्ना जाने दो - मैं चला, मगर ये बात ध्यान रखना कि तुम एक बहुत बड़े धोखे में फंसने जा रहे हो। इस समय तो मुझ पर विश्वास नहीं कर रहे हो, परन्तु जब तुम फंस जाओगे तो सोचोगे कि अगर मैं पिशाच की सुन लेता तो शायद इस मुसीबत में नहीं फंसता।'' इतना कहकर वापस जाने के लिए मुड़ गया पिशाचनाथ। वख्तावर तो उसके शब्दों पर विचार ही करता रह गया जबकि-----

''ठहर।'' एकदम गरज उठा विक्रमसिंह-- ''जाता कहां है? यहां आना तेरे हाथ था, किन्तु जाना तेरे हाथ नहीं है। इतना प्रबल नहीं तू कि सबके बीच में से यूं आसानी के साथ निकलकर चला जाए।

मेरे और बख्तावर के बीच ये फैसला हो चुका है कि हम उमादत्त का तख्ता किसी भी तरह नहीँ पलटने देंगे और ये भी जानते हैं कि इस काम  में तू मेघराज का खास सहायक है। मेघराज को ऐयारी की खास-खास तरकीबें तू ही बताया करता है, अत: तुझे हम यहां से नहीं जाने देंगे।  तुझसे पूछकर रहेंगे कि तूने मेघराज के कान में क्या कहा था? तू चंद्रप्रभा और रामरतन से कलमदान का रहस्य किस तरह पता लगा  सकता है?'' यह कहते हुए विक्रमसिंह ने म्यान से तलवार खींच ली थी, और झपटकर वह पिशाच समीप पहुंच गया था।

पिशाच बड़े आराम से पलटा। उसके होंठों पर मुस्कराहट थी। एक बार उसने बख्तावरसिंह की तरफ देखा, फिर बोला- ''मुझे इस बात का आश्चर्य है विक्रमसिंह कि तुम पिशाच को इतना मूर्ख कब से समझने लगे  हो कि वह तुम जैसे नमकहराम के सामने बिना किसी तैयारी के आ जाएगा? तुम शायद यह नहीँ देख रहे हो कि मैंने इस समय पहन क्या रखा है, ये देखो।'' कहकर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और एक जोरदार अंगड़ाई ली। उसने जो काला लिबास पहन रखा था, उसमें से एक साथ ढेर सारी आग की चिंगारियां निकलीं और यह करिश्मा देखकर विक्रम चौंककर पीछे हट गया!

''मुझे कोई नहीं पकड़ सकता।'' पिशाच मुस्कराकर  बोला- ''जो भी मेरे पास आएगा जलकर खाक हो जाएगा। तुमसे एक बार फिर कहता हूं बख्तावर कि अगर तुम तखलिए में एक बार मेरी बात सुन लोगे तो एक बहुत बड़े धोखे से बच जाओगे - आगे तुम्हारी इच्छा।'' कहकर पिशाच पुन: दरवाजे की ओर मुड़ा।

''ठहरो पिशाच!'' एकाएक बख्तावर कुछ सोचता हुआ आवाज में तब्दीली लाता हुआ बोला- ''मैं तखलिए में तुम्हारी बात सुनने के लिए तैयार हूं।''

'नहीं बख्तावर।'' विक्रम तुरन्त बोला- ''यह तुम्हें अपने विचित्र लिबास से जलाना चाहता है।''

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