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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

आज हम भरतपुर में अजीब आतंक अनुभव कर रहे हैं। सड़कें, गली, चौराहे आदि सूने हैं। बाजार बंद हैं। अधिकांश आदमी घरों में घुसे हैं। सड़क अथवा गलियों में केवल सैनिक ही नजर आते हैं। भरतपुर का बाहरी फाटक इस समय बन्द है। अन्दर चारों ओर सन्नाटा-सा छाया हुआ था। मानो कोई बड़ा भारी मातम मनाया जा रहा है -  अपने-अपने घरों में बन्द हरएक का चेहरा पीला पड़ा हुआ है। इस सबका क्या सबब है, यह आप राजा सुरेंद्रसिंह और उनके अन्य सहयोगी पात्रों की वार्ता से समझ सकेंगे। आइए, इस शहर में छाए हुए इस सन्नाटे को छोड़कर महल के उस सजे हुए मुख्य सभागार का हाल देखते हैं, इस समय वहां पांच आदमी मौजूद हैं। राजा सुरेद्रसिंह, उनका दारोगा जसवंतसिंह, सुरेंद्रसिंह का भाई हरनामसिंह, उनका लड़का बलराम और एक ऐयार जिसका नाम गोपालदास है। इन पांचों के ही चेहरों पर इस समय हम चिन्ता के गहरे भाव देखते हैं। सुरेंद्रसिंह की स्थिति तो यहां तक खराब है कि उनकी आंखों से आसूं निकले जा रहे हैं। सुरेंद्र ने अपने दोनों हाथ पीठ पीछे बांध रखे हैं और बेकरारी के आलम में घूम रहे हैं। बाकी चारों गरदन झुकाए खड़े हैं। इस कमरे में भी यह चुप्पी छाए हुए कम-से-कम तीस सायत गुजर गए हैं। वहां की स्थिति से इतना अन्दाजा तो हम लगा ही सकते हैं कि उन सभी के सामने कोई समस्या है। उस समस्या का समाधान किसी की समझ में नहीं आ रहा है। सभी चिन्तित एवं परेशान हैं।

''क्या करें.. हम कैसे अपनी इज्जत बचाएं?'' बेचैनी में राजा सुरेंद्र स्वयं ही बुदबुदा उठते हैं।

''अगर आप मेरी बात मानें - तो मैं एक बात कहूं महाराज।'' दारोगा जसवंतसिंह कहता है। उसकी आवाज सुनते ही सुरेंद्रसिंह एकदम उसकी ओर देखते हैं और कहते हैं- ''जसवंत, हम सच कहते हैं - अगर तुम हमें इस मुसीबत से छुटकारा दिला दोगे तो हम तुम्हारे लिए अपना खजाना खोल देंगे।''

''मेरे ख्याल से फाटक खोल देना ही उचित होगा महाराज।'' जसवंत ने कहा।

''क्यों बेवकूफी की बात कर रहे हो, जसवंत?'' सुरेंद्रसिंह के भाई यानी हरनामसिंह कह उठते हैं- ''क्या तुम भूल गये कि भरतपुर के चारों ओर चंद्रदत्त की कितनी सेना पड़ी है? हर हालत में उनकी सेना हमसे चौगुनी और शक्तिशाली है। उन्होंने हम पर हमला किया है। हमारा अधिकांश राज्य उन्होंने अपने कब्जे में कर लिया है। अब केवल यह राजधानी ही तो बची है। वह तो राजधानी के चारों ओर की दीवार और फाटक इतना मजबूत है कि चंद्रदत्त के आदमी यहां नहीं आ सकते। हम सब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि फाटक खुलते ही चंद्रदत्त की फौजें अन्दर घुस आएंगी। हमारे पास इस समय इतनी शक्ति नहीं है कि हम चंद्रदत्त का मुकाबला कर सकें। कठिनता से एक घण्टे बाद ही राजधानी को भी विजय कर लेंगे और..।''

इससे आगे कहते-कहते हरनामसिंह स्वयं रुक गए।

''नहीं.... नहीं!'' एकदम घबराकर बोले सुरेंद्रसिंह- ''ऐसा नहीं हो सकता.. हम ऐसा नहीं होने देंगे।''

''लेकिन महाराज. इस तरह हम कब तक समय काट सकेंगे?'' जसवंतसिंह ने कहा- ''इसी स्थिति में आज हमें पूरे चार महीने हो गए हैं। चार महीने से चंद्रदत्त की सेनाएं राजधानी को घेरे पड़ी हैं। फाटक उसी समय से बन्द है। राजधानी की प्रजा के लिए खाद्य सामग्री भी समाप्त हो चुकी है। अगर हम फाटक नहीं खोलेंगे तो हमारी प्रजा और हम भूख से तड़प-तड़पकर मर जाएंगे। इस मौत से तो लड़ते-लड़ते मर जाना बेहतर है महाराज।''

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