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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''तो फिर क्या किया जा सकता है?'' अन्त में बलराम भी घूमकर वहीं आ गया।

एक बार पुन: कमरे में सन्नाटा छा गया। इस बार ऐसा लगता था कि सुरेंद्रसिंह कोई बहुत ही गम्भीर बात सोच रहे हों। कुछ सायत तक वे सोचते रहे, फिर गरदन उठाकर पत्थर से कठोर स्वर में बोले-- ''लेकिन अगर असली कांता को मार दिया जाए तो?''

''क्या?'' एकदम सभी बुरी तरह चौंक पड़े- ''ये आप क्या कह रहे हैं महाराज ?'

राजा सुरेंद्रसिंह का चेहरा लाल सुर्ख हो रहा था। आखें सुर्ख होकर जैसे पथरा गई थीं। जबड़े भिंच गए थे। उसी सख्त स्वर में वे बोले--- ''हम ठीक कहते हैं। ये हमारा दिल जानता है कि हम कांता को अपनी जान से भी ज्यादा अजीज समझते हैं। किन्तु केवल एक कांता के कारण हजारों आदमियों का कत्लेआम हो जाए - यह भला कहां तक न्याय लगता है? सब हमें यही कहेंगे कि अपनी लड़की के लिए राजा सुरेंद्रसिंह ने हजारों आदमियों को मौत के घाट उतार दिया। हम जीती कांता को चंद्रदत्त को नहीं सौंप सकते। अगर हम राजा की दृष्टि से देखें तो यही उचित होगा। हम कांता को मारकर उसकी लाश चंद्रदत्त के पास पहुंचा देंगे। हम स्वयं भी आमहत्या करके अपना राज्य चंद्रदत्त को।''

''नहीं महाराज!'' गोपालदास एकदम बोला- ''यह क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध होगा -- ऐसा फैसला एकदम गलत है।''

''तो हम क्या करें गोपालदास?'' एकदम माथे पर हाथ मारकर रो पड़े सुरेंद्रसिंह- ''क्या करें हम ? तुम तो ऐयार हो, तुम ही कोई तरकीब सोचो - ऐसे विकट समय में अपनी ऐयारी का कोई कमाल दिखाओ। सच कहते हैं - हम अपना सारा खजाना तुम्हारे नाम लिख देंगे।''

''ऐयार केवल युद्ध से पहले कुछ कर सकता है महाराज।'' गोपालदास बोला- ''जब युद्ध छिड़ जाता है तो सेनाएं काम करती हैं। हम भला इस स्थिति में क्या ऐयारी दिखा सकते हैं? ऐयार मोर्चा लगने से पहले कुछ कर सकता है, बाद में नहीं।''

अभी गोपालदास की बात का कोई जवाब भी नहीं दे पाया था कि एक नया आदमी कमरे में दाखिल हुआ। यह आदमी बेहद सुन्दर एवं आकर्षक था। लम्बा कद--कसरती बदन, नीली आखें - गोरा रंग। वह आचकन-पायजामा और कमरबंद पहने तथा मुंडासा बांधे हुए था। वह तलवार और तीर-कमान के साथ-साथ कई किस्म के हर्वे से भी सजा हुआ था। उसके दाखिल होते ही सुरेंद्रसिंह उसकी ओर लपककर कहते हैं --

'शेरसिंह - आओ -- तुम हमारी रियासत के सबसे बड़े ऐयार

हो.. तुम्हीं हमें इस मुसीबत से छुटकारा दिलाने में हमारी कुछ मदद  करो।''   

'मैं यही सोचकर आया हूं महाराज।'' शेरसिंह सुरेन्द्रसिंह के समीप पहुंचकर कहता है- ''इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए मेरे दिमाग में एक ऐयारी आई है। ईश्वर ने चाहा तो वह सफल भी हो सकती है.. अगर सफल न हो सकी तो मैं आपको कभी अपनी सूरत न दिखाऊंगा।''

''सच शेरसिंह क्या तुम सच कहते हो?'' सुरेंद्रसिंह एकदम खुशी से उछल पड़े- ''हमें तुम पर पूरा भरोसा है.. आज तक तुमने अपने हाथ में जो भी कुछ लिया है, उसे सफल करके दिखाया है। मगर, अगर तुम इस काम में सफल हो गए शेरसिंह तो सच जानना, हम सारे जीवन के लिए तुम्हारे गुलाम हो जाएंगे। जीवन में हमसे जो मांगोगे, वही देंगे। हम तुम्हारी किसी बात को नहीं टालेंगे। तुम हमारा ये काम कर दो, शेरसिंह...सच कहते हैं.. हम तुम्हारे गुलाम हो जाएंगे। जल्दी बताओ.. वह क्या तरकीब है? तुम बिना लड़ाई के किस तरह इस समस्या को सुलझा सकते हो?''

''बात तखलिए में बताने की है महाराज।'' शेरसिंह ने कहा- ''कृपया आप मेरे साथ अन्दर वाले कमरे में चलिए।'' इस तरह शेरसिंह राजा सुरेंद्रसिंह को अलग कमरे में ले गया, अन्य सभी यही सोचते रहे कि आखिर शेरसिंह ऐसी क्या तरकीब लाया है, जिससे वह बिना युद्ध के ही चंद्रदत्त की सेना को राजधानी के चारों ओर से हटा सकता है? उनमें से कोई भी शेरसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की बात को नहीं सुन सका, किन्तु सभी एकदूसरे की ओर देख रहे थे.. मानो पूछ रहे हों कि क्या कोई ऐसी तरकीब हो सकती है?

किन्तु.. इसका जवाब उनमें से किसी के पास नहीं था।

 

० ० ०

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