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देवकांता संतति भाग 2

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2053

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

चौदहवाँ बयान


भरतपुर की राजधानी के बाहर पड़े खेमों में एक सबसे बड़ा खेमा है। हो भी क्यों नहीं? वह राजा चंद्रदत का खेमा जो है--उनका खेमा सिपाहियों के खेमों के बीच में है, ताकि कोई भी आदमी आसानी से राजा चंद्रदत्त तक न पहुंच सके, मगर हम उसके अन्दर तक पहुंच गए हैं - वो देखो - डेरे के अन्दर तेज रोशनी वाली कंदील जल रही है। इस समय डेरे में केवल तीन आदमी हैं - एक राजा चंद्रदत्त और शेष दोनों उनके पुत्र शंकरदत्त और बालीदत्त। शंकरदत्त उनका बड़ा बेटा है और बालीदत्त उनका छोटा बेटा - वे तीनों ही अभी तक जाग रहे हैं - और कुछ बातें कर रहे हैं.. आइए हम इनकी बातों को सुनें।

''अब हमें अधिक दिनों तक इन्तजार नहीं करना पड़ेगा, बेटे!'' चंद्रदत्त शंकरदत्त से कह रहे थे- ''कल सन्देश आया था कि राजधानी के अन्दर खाद्य सामग्री समाप्त हो चुकी है, अब या तो वे मजबूर होकर फाटक खोलकर युद्ध करेंगे, अथवा भूख से मरेंगे.. दोनों ही तरह से हमारी जीत है। हमने तुम्हारे लिए बहू के रूप में कांता को.. ही चाहा था और अब जल्दी ही हम उसे तुम्हारी पत्नी बना देंगे।''

''ये तो मेरे प्रति आपका प्यार है पिताजी!'' शंकरदत्त सम्मान के साथ हाथ जोड़कर बोला- ''मैंने बड़ी हिम्मत करके आपके सामने अपना विवाह कांता से करने का प्रस्ताव रखा था... मैं तो डर रहा था कि कहीं आप मुझसे नाराज न हो जाएं - इसीलिए आपसे न कहकर माताजी से कहा था!''

''और फिर - पिताजी तो पहले ही कांता को मेरी भाभी बनाने के लिए तैयार थे।'' मुस्कराते हुए बालीदत्त बोला।

''यह मेरा भाग्य ही था।'' शंकरदत्त ने कहा- ''मेरे ख्याल से आज तक किसी पिता ने किसी पुत्र को इस तरह दुल्हन न दी होगी।''

''खुद हमें तो अभी तक रणक्षेत्र में उतरना भी नहीं पड़ा है।'' चंद्रदत्त बोले- ''अभी तक तो सिर्फ हमारे दारोगा जोरावरसिंह ने ही सबकुछ सम्भाल लिया। मानना पड़ेगा कि जोरावरसिंह बड़े काम का आदमी है। सारी सेना को उसने इस तरह अपने कहने में कर रखा है कि उसके आदेश पर सेना हर समय वार करने के लिए तैयार रहती है। जोरावरसिंह जैसे दारोगा किसी भाग्यशाली राजा को ही मिलते हैं। सारी सेना उसके कहने से इस तरह चलती है, मानो वही उनका राजा है - उसी की वजह से हम एक बहुत बड़ी मुसीबत से अलग ही बचे पड़े हैं।''

'वह कैसी मुसीबत, पिताजी?'' बालीदत्त ने पिता से प्रश्न किया।

''यही - सेना की मुसीबत!'' राजा चंद्रदत्त बोले- ''हमारे साथ यह मुसीबत नहीं है कि हम हर सिपहसालार को अलग-अलग समझाते फिरें, हमें जो समझाना होता है. जोरावरसिंह को समझा देते हैं, बस वह पूरी सेना को सम्भाल लेता है - सेना के लिए उसके लफ्ज हमारे लफ्ज होते हैं।''

''लेकिन पिताजी. एक तरह से देखा जाए तो यह गलत भी है।'' शंकरदत्त ने कहा।

''क्या मतलब?''

''मेरे ख्याल से तो आपको सेना से खुद भी बात करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह तो सेना पर सारा अधिकार जोरावरसिंह का ही रहता है। हो सकता है कि कभी दारोगा के दिमाग में बदी ही आ जाए.. और वह सेना को आपके खिलाफ भड़का दे और लूट।''

''हम समझ गए कि तुम क्या कहना चाहते हो।'' राजा चंद्रदत्त मुस्कराकर बोले - ''किन्तु तुम अभी बच्चे हो -- हम आदमी की परख अच्छी तरह जानते हैं, जोरावरसिंह ऐसा आदमी नहीं है, वह हमें राजा नहीं अपना भगवान मानता है। हमसे गद्दारी का विचार उसके दिमाग में आ ही नहीं सकता।''

उसी समय एक सिपाही डेरे में आया और सलाम करने के बाद बोला-- ''महाराज - ऐयार नलकूराम आपसे मिलना चाहते हैं।''

इसके जवाब में चंद्रदत्त ने कहा-- ''उसे भेज दो।'' फिर सैनिक के जाने के बाद अपने दोनों बेटों से बोला--- ''लो, आज का सन्देश भी ले आया नलकू।''

कुछ ही सायत बाद डेरे में नलकू दाखिल हुआ -- और फिर उसने उन्हें सलाम किया -- चंब्रदत्त ने पूछा- ''क्या मिला सन्देश?''

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