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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

पहला बयान

 

हम और आप इस रहस्यमय नकाबपोश से पहले दो बार मिल तो जरूर चुके हैं, परन्तु अभी तक इसका नाम नहीं जानते.. यह वही नकाबपोश है, जो एक बार जमना की आंखों के सामने रामकली की खाट के नीचे से निकला था। रामकली ने उसके कान में कुछ कहा था, जिसे सुनकर वह चुपचाप पिशाचनाथ के मकान की चारदीवारी कूदकर भाग गया था। जमना ने उसका पीछा करना चाहा था मगर वह विफल रही थी।

दूसरी बार हमने इसी नकाबपोश को शैतानसिंह और बिहारीसिंह के पीछे लगे उस समय देखा, जब वे दोनों रामकली की गठरी बांधे आपस में बातें करते हुए जा रहे थे। न केवल उनका पीछा कर रहा था, बल्कि बाकायदा उनकी बातें भी सुन रहा था।

और अब.. तीसरी बार हम इसे बेगम बेनजूर के महल के तहखाने में देख रहे हैं। हालांकि इस समय भी चेहरे पर वही नकाब है.. लेकिन इस बार हमने भी फैसला कर लिया है कि हम इसका भेद जानकर ही दम लेंगे। देखते हैं कब तक यह अपने चेहरे से इस काले नकाब को नहीं उतारता है! कभी तो उतारेगा ही.. आज हम भी इसका पीछा तभी छोड़ेंगे, जब यह अपनी नकाब उतार देगा। वैसे भी इस समय यह जिस ढंग की हरकत कर रहा है, उससे लगता है कि इस समय भी इसके इरादे नेक नहीं हैं। कदाचित् यह कोई कार्यवाही करने की सोच रहा है।

हालांकि इस समय सुबह का सूरज निकल आया है.. मगर यहां बेगम बेनजूर के तहखाने में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।

इस समय वह तहखाने की एक लम्बी गैलरी में खड़ा है। गैलरी दूर-दूर तक शांत पड़ी है.. दोनों ओर की दीवारों में जलती मशालें गैलरी को चमकाने में उसकी मदद कर रही हैं। उसकी बगल में ऐयारी का एक बटुआ लटक रहा है। बटुए मेँ से निकालकर एक छोटी-सी कटार उसने अपने हाथ में ली है और वह चारों ओर से चाक-चौबन्द रहने की कोशिश करता हुआ दबे-पांव गैलरी में आगे बढ़ रहा था। नकाब में से झांकती उसकी दोनों आंखें बता रही हैं-कि वह हर सायत बहुत सतर्क है। इसी तरह चलता हुआ वह गैलरी के अंत में पहुंचकर रुक जाता है। आगे गैलरी बन्द है और उसे किसी भी तरफ जाने का रास्ता नहीं मिलता, कदाचित् वह इसलिये खड़ा हुआ सोच रहा है कि उसे आगे क्या करना चाहिये?

अभी वह कुछ सोच भी नहीं पाता कि-

तहखाने में अजीब-सी गड़गड़ाहट की आवाज गूंजी और सामने की दीवार में हल्का-सा कंपन हुआ। झपटकर नकाबपोश बारादरी की दाहिनी दीवार से चिपक गया। उसी सायत सामने की दीवार ऊपर उठ गई और एक आदमी सामने आया। नकाबपोश ने आव देखा न ताव, अपनी कटार संभालकर चीते की तरह उस आदमी पर झपटा। वह आदमी कुछ समझ भी नहीं पाया था कि-

'अगर कोई भी आवाज गले से निकाली तो हम गरदन में छेद कर देंगे।''

वह आदमी, जो वर्दी से बेनजूर का सैनिक नजर आता था.. सहम गया। घबराकर वह बोला- ''कौन हो तुम?''

''बकवास मत करो।'' नकाबपोश गुर्राया- ''ये बताओ कि पिशाचनाथ और रामकली कहां कैद हैं?''

''तुम जो भी कोई हो, यहां से बचकर नहीं जा सकोगे।'' सिपाही बोला- ''तुम...!''

अभी वह सिपाही आगे कोई शब्द कह भी नहीं पाया था कि नकाबपोश ने कटार का दबाव सैनिक के गले पर इतना बढ़ा दिया कि उसके बाकी के शब्द उसके मुंह में ही रह गए। कुछ देर तक वह नकाबपोश के सवाल का जवाब देने में आनाकानी करता रहा, मगर जान से मुहब्बत किसे नहीं होती, मरने के भय से वह जल्दी ही रास्ते पर आ गया और बोला- ''यहां से दायीं तरफ, कोठरी नंबर दस में।'' - 'वहां कितने सिपाही पहरे पर हैं?'' नकाबपोश ने कठोर लहजे में अगला सवाल किया।

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