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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

ईश्वर ने कहा- ब्रह्मन्! हरे! तुम दोनों मुझे सदा ही अत्यन्त प्रिय हो। तुम दोनों को देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है। तुम लोग समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा त्रिलोकी के स्वामी हो। लोकहित के कार्य में मन लगाये रहनेवाले तुम दोनों का वचन मेरी दृष्टि में अत्यन्त गौरवपूर्ण है। किंतु सुरश्रेष्ठगण! मेरे लिये विवाह करना उचित नहीं होगा; क्योंकि मैं तपस्या में संलग्न रहकर सदा संसार से विरक्त ही रहता हूँ और योगी के रूप में मेरी प्रसिद्धि है। जो निवृत्ति के सुन्दर मार्गपर स्थित है अपने आत्मा में ही रमण करता-आनन्द मानता है निरंजन (मायासे निर्लिप्त) है, जिसका शरीर अवधूत (दिगम्बर) है, जो ज्ञानी, आत्मदर्शी और कामना से शून्य है, जिसके मन में कोई विकार नहीं है जो भोगों से दूर रहता है तथा जो सदा अपवित्र और अमंगल वेशधारी है उसे संसार में कामिनी से क्या प्रयोजन है- यह इस समय मुझे बताओ तो सही!

यो निवृतिसुमार्गस्थः स्वात्मारामो निरञ्जनः।
अवधूततनुर्ज्ञानी स्वद्रष्टा कामवर्जितः।।
अविकारी ह्यभोगी च सदा शुचिरमङ्गलः।
तस्य प्रयोजनं लोके कामिन्या किं वदाधुना।।

(शि० पु० रु० सं० स० ख० १५। ३१-३२)

मुझे तो सदा केवल योग में लगे रहने पर ही आनन्द आता है। ज्ञानहीन पुरुष ही योग को छोड़कर भोग को अधिक महत्त्व देता है। संसार में विवाह करना पराये बन्धन में बँधना है। इसे बहुत बड़ा बन्धन समझना चाहिये। इसलिये मैं सत्य-सत्य कहता हूँ, विवाह के लिये मेरे मन में थोड़ी-सी भी अभिरुचि नहीं है। आत्मा ही अपना उत्तम अर्थ या स्वार्थ है। उसका भलीभांति चिन्तन करने के कारण मेरी लौकिक स्वार्थ में प्रवृत्ति नहीं होती। तथापि जगत् के हित के लिये तुमने जो कुछ कहा है, उसे करूँगा। तुम्हारे वचन को गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बात को पूर्ण करने के लिये मैं अवश्य विवाह करूँगा; क्योंकि मैं सदा भक्तों के वश में रहता हूँ। परंतु मैं जैसी नारी को प्रिय पत्नी के रूप में ग्रहण करूँगा और जैसी शर्त के साथ करूँगा, उसे सुनो।

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