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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

अध्याय २१-२३ 

सतीका प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्ति के स्वरूप का विवेचन

कैलास तथा हिमालय पर्वतपर श्रीशिव और सतीके विविध विहारोका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेके पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा- मुने! एक दिनकी बात है देवी सती एकान्त में भगवान् शंकर से मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं। प्रभुशंकरको पूर्ण प्रसन्न जान नमस्कार करके विनीतभावसे खड़ी हुई दक्षकुमारी सती भक्तिभावसे अंजलि बाँधे बोलीं। 

सतीने कहा- देवदेव महादेव! करुणासागर! प्रभो! दीनोद्धारपरायण! महायोगिन्! मुझपर कृपा कीजिये। आप परम पुरुष हैं। सबके स्वामी हैं। रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणसे परे हैं। निर्गुण भी हैं सगुण भी हैं। सबके साक्षी, निर्विकार और महाप्रभु हैं। हर! मैं धन्य हूँ जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करनेवाली आपकी प्रिया हुई। स्वामिन्! आप अपनी भक्तवत्सलतासे ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ! मैंने बहुत वर्षोंतक आपके साथ विहार किया है। महेशान! इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हूँ और अब मेरा मन उधरसे हट गया है। देवेश्वर हर! अब तो मैं उस परम तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो निरतिशय सुख प्रदान करनेवाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुखसे अनायास ही उद्धार पा सकता है। नाथ! जिस कर्मका अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पदको प्राप्त कर ले और संसारबन्धनमें न बँधे, उसे आप बताइये, मुझपर कृपा कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं- मुने! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सतीने केवल जीवोंके उद्धार के लिये जब उत्तम भक्तिभाव के साथ भगवान् शंकर से प्रश्न किया, तब उनके उस प्रश्न को सुनकर स्वेच्छा से शरीर धारण करनेवाले तथा योग के द्वारा भोग से विरक्त चित्तवाले स्वामी शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सती से इस प्रकार कहा।

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