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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय २०

भगवान् शिव का कैलास पर्वत पर गमन तथा सृष्टिखण्ड का उपसंहार

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! मुने! कुबेर के तपोबल से भगवान् शिव का जिस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ कैलास पर शुभागमन हुआ, वह प्रसंग सुनो। कुबेर को वर देनेवाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधिपति होने का वर देकर अपने उत्तम स्थान को चले गये, तब उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया- 'ब्रह्माजी के ललाट से जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलय का कार्य सँभालते हैं वे रुद्र मेरे पूर्ण स्वरूप हैं। अत: उन्हीं के रूप में मैं गुह्यकों के निवासस्थान कैलास पर्वत को जाऊँगा। उन्हीं के रूप में मैं कुबेर का मित्र बनकर उसी पर्वत पर विलासपूर्वक रहूँगा और बड़ा भारी तप करूँगा।'

शिव की इस इच्छा का चिन्तन करके उन रुद्रदेव ने कैलास जाने के लिये उत्सुक डमरू बजाया। डमरू की वह ध्वनि, जो उत्साह बढ़ाने वाली थी, तीनों लोकों में व्याप्त हो गयी। उसका विचित्र एवं गम्भीर शब्द आह्वान की गति से युक्त था अर्थात् सुननेवालों को अपने पास आने के लिये प्रेरणा दे रहा था। उस ध्वनि को सुनकर मैं तथा श्रीविष्णु आदि सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान् आगम, निगम और सिद्ध वहाँ आ पहुँचे। देवता और असुर आदि सब लोग बड़े उत्साह में भरकर वहाँ आये। भगवान् शिव के समस्त पार्षद तथा सर्वलोकवन्दित महाभाग गणपाल जहाँ कहीं भी थे, वहाँ से आ गये।

इतना कहकर ब्रह्माजीने वहाँ आये हुए गणपालों का नामोल्लेखपूर्वक विस्तृत परिचय दिया, फिर इस प्रकार कहना आरम्भ किया। वे बोले- वहाँ असंख्य महाबली गणपाल पधारे। वे सब-के-सब सहस्त्रों भुजाओं से युक्त थे और मस्तक पर जटा का ही मुकुट धारण किये हुए थे। सभी चन्द्रचूड़, नीलकण्ठ और त्रिलोचन थे। हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदि से अलंकृत थे। वे मेरे, श्रीविष्णु के तथा इन्द्र के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। अणिमा आदि आठों सिद्धियों से घिरे थे तथा करोड़ों सूर्यों के समान उद्भासित हो रहे थे। उस समय भगवान् शिव ने विश्वकर्मा को उस पर्वतपर निवासस्थान बनाने की आज्ञा दी। अनेक भक्तों के साथ अपने और दूसरों के रहने के लिये यथायोग्य आवास तैयार करने का आदेश दिया।

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