लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

Like this Hindi book 0

भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ७- १०

संध्या की आत्माहुति, उसका अरुन्धती के रूप में अवतीर्ण होकर मुनिवर वसिष्ठ के साथ विवाह करना, ब्रह्माजी का रुद्र के विवाह के लिये प्रयत्न और चिन्ता तथा भगवान् विष्णु का उन्हें 'शिवा' की आराधना के लिये उपदेश देकर चिन्तामुक्त करना

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! जब वर देकर भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये, तब संध्या भी उसी स्थान पर गयी, जहाँ मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। भगवान् शंकर की कृपा से उसे किसी ने वहाँ नहीं देखा। उसने उस तेजस्वी ब्रह्मचारी का स्मरण किया, जिसने उसके लिये तपस्या की विधि का उपदेश दिया था। महामुने! पूर्व काल में महर्षि वसिष्ठ ने मुझ परमेष्ठी की आज्ञा से एक तेजस्वी ब्रह्मचारी का वेष धारण करके उसे तपस्या करने के लिये उपयोगी नियमों का उपदेश दिया था। संध्या अपने को तपस्या का उपदेश देनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण वसिष्ठ को पतिरूप से मन में रखकर उस महायज्ञ में प्रज्वलित अग्नि के समीप गयी। उस समय भगवान् शंकर की कृपा से मुनियों ने उसे नहीं देखा। ब्रह्माजी की वह पुत्री बड़े हर्ष के साथ उस अग्नि में प्रविष्ट हो गयी। उसका पुरोडाशमय (यज्ञभाग) शरीर तत्काल दग्ध हो गया। उस पुरोडाश की अलक्षित गन्ध सब ओर फैल गयी। अग्नि ने भगवान् शंकर की आज्ञा से उसके सुवर्ण-जैसे शरीर को जलाकर शुद्ध करके पुन: सूर्यमण्डल में पहुँचा दिया। तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिये उसे दो भागों में विभक्त करके अपने रथ में स्थापित कर दिया। मुनीश्वर! उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रात:संध्या हुआ, जो रात और दिन के बीच में पड़नेवाली आदिसंध्या है तथा उसके शरीर का शेष भाग सायंसंध्या हुआ, जो दिन और रात के मध्य में होनेवाली अन्तिम संध्या है। सायंसंध्या सदा ही पितरों को प्रसन्नता प्रदान करनेवाली होती है। सूर्योदय से पहले जब अरुणोदय हो, प्राची के क्षितिज में लाली छा जाय, तब प्रात:संध्या प्रकट होती है जो देवताओं को प्रसन्न करनेवाली है। जब लाल कमल के समान सूर्य अस्त हो जाते हैं, उसी समय सदा सायंसंध्या का उदय होता है जो पितरों को आनन्द प्रदान करनेवाली है। परम दयालु भगवान् शिव ने उसके मनसहित प्राणों को दिव्य शरीर से युक्त देहधारी बना दिया। जब मुनि के यज्ञ की समाप्ति का अवसर आया, तब वह अग्नि की ज्वाला में महर्षि मेधातिथि को तपाये हुए सुवर्ण की-सी कान्तिवाली पुत्री के रूप में प्राप्त हुई। मुनि ने बड़े आमोद के साथ उस समय उस पुत्री को ग्रहण किया। मुने! उन्होंने यज्ञ के लिये उसे नहलाकर अपनी गोद में बिठा लिया। शिष्यों से घिरे हुए महामुनि मेधातिथि को वहाँ बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। उन्होंने उसका नाम 'अरुन्धती' रखा। वह किसी भी कारण से धर्म का अवरोध नहीं करती थी; अत: उसी गुण के कारण उसने स्वयं यह त्रिभुवन-विख्यात नाम प्राप्त किया। देवर्षे! यज्ञ को समाप्त करके कृतकृत्य हो वे मुनि पुत्री की प्राप्ति होने से बहुत प्रसन्न थे और अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहकर सदा उसी का लालन-पालन करते थे। देवी अरुन्धती चन्द्रभागा नदी के तट पर तापसारण्य के भीतर मुनिवर मेधातिथि के उस आश्रम में धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। जब वह विवाह के योग्य हो गयी, तब मैंने, विष्णु तथा महेश्वर ने मिलकर मुझ ब्रह्मा के पुत्र वसिष्ठ के साथ उसका विवाह करा दिया। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के हाथों से निकले हुए जल से शिप्रा आदि सात परम पवित्र नदियाँ उत्पन्न हुईं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book