ई-पुस्तकें >> शिवसहस्रनाम शिवसहस्रनामहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव के सहस्त्रनाम...
गुरुदो ललितोऽभेदो भावात्माऽऽत्मनि संस्थित:।
वीरेश्वरो वीरभद्रो वीरासनविधिर्विराट्।।५१।।
४०३ गुरु: - श्रेष्ठ वस्तु प्रदान करनेवाले अथवा जिज्ञासुओं को गुरु की प्राप्ति करानेवाले, ४०४ ललित: - सुन्दर स्वरूपवाले, ४०५ अभेद: - भेद रहित, ४०६ भावात्माऽऽत्मनि संस्थितः - सत्यरूप आत्मा में प्रतिष्ठित, ४०७ वीरेश्वर: - वीरशिरोमणि, ४०८ वीरभद्र: - वीरभद्र नामक गणाध्यक्ष, ४०९ वीरासनविधि: - वीरासन से बैठने वाले, ४१० विराट् - अखिलब्रह्माण्डस्वरूप।।५१।।
वीरचूडामणिर्वेत्ता चिदानन्दो नदीधर:।
आज्ञाधारस्त्रिशूली च शिपिविष्ट: शिवालय:।।५२।।
४११ वीरचूडामणि: - वीरों में श्रेष्ठ, ४१२ वेत्ता - विद्वान्, ४१३ चिदानन्द: - विज्ञानानन्दस्वरूप, ४१४ नदीधर: - मस्तक पर गंगाजी को धारण करनेवाले, ४१५ आज्ञाधार: - आज्ञा का पालन करनेवाले, ४१६ त्रिशूली - त्रिशूलधारी, ४१७ शिपिविष्ट: - तेजोमयी किरणों से व्याप्त, ४१८ शिवालयः - भगवती शिवा के आश्रय।।५२।।
वालखिल्यो महाचापस्तिग्मांशुर्बधिर: खग:।
अभिराम: सुशरण: सुब्रह्मण्य: सुधापति:।।५३।।
४१९ वालखिल्यः - वालखिल्य ऋषिरूप, ४२० महाचापः - महाधनुर्धर, ४२१ तिग्मांशु: - सूर्यरूप, ४२२ बधिर: - लौकिक विषयों की चर्चा न सुननेवाले, ४२३ खग: - आकाशचारी, ४२४ अभिराम - परम सुन्दर, ४२५ सुशरणः - सबके लिये सुन्दर आश्रयरूप, ४२६ सुब्रह्मण्य - ब्राह्मणों के परम हितैषी, ४२७ सुधापतिः - अमृतकलश के रक्षक।।५३।।
मघवान्कौशिको गोमान्विराम: सर्वसाधन:।
ललाटाक्षो विश्वदेह: सार: संसारचक्रभृत्।।५४।।
४२८ मघवान् कौशिक - कुशिकवंशीय इन्द्रस्वरूप, ४२९ गोमान् - प्रकाश किरणों से युक्त, ४३० विरामः - समस्त प्राणियों के लय के स्थान, ४३१ सर्वसाधनः - समस्त कामनाओं को सिद्ध करनेवाले, ४३२ ललाटाक्षः - ललाट में तीसरा नेत्र धारण करनेवाले, ४३३ विश्वदेह: - जगत्स्वरूप, ४३४ सार: - सारतत्त्वरूप, ४३५ संसारचक्रभृत् - संसारचक्र को धारण करनेवाले।।५४।।
अमोघदण्डो मध्यस्थो हिरण्यो ब्रह्मवर्चसी।
परमार्थ: परो मायी शम्बरो व्याघ्रलोचन:।।५५।।
४३६ अमोघदण्डः - जिनका दण्ड कभी व्यर्थ नहीं जाता है ऐसे, ४३७ मध्यस्थ: - उदासीन, ४३८ हिरण्यः - सुवर्ण अथवा तेजःस्वरूप, ४३९ ब्रह्मवर्चसी - ब्रह्मतेज से सम्पन्न, ४४० परमार्थः - मोक्षरूप उत्कृष्ट अर्थ की प्राप्ति करानेवाले, ४४१ परोमायी - महामायावी, ४४२ शम्बरः - कल्याणप्रद, ४४३ व्याघ्रलोचन: - व्याघ्र के समान भयानक नेत्रोंवाले।।५५।।
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