ई-पुस्तकें >> शिवसहस्रनाम शिवसहस्रनामहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव के सहस्त्रनाम...
प्रशान्तबुद्धिरक्षुण्ण: संग्रही नित्यसुन्दर:।
वैयाघ्रधुर्यो धात्रीश: शाकल्य: शर्वरीपति:।।१३१।।
९८७ प्रशान्तबुद्धि: - शान्त बुद्धिवाले, ९८८ अक्षुण्ण: - क्षोभ या नाश से रहित, ९८९ संग्रही - भक्तों का संग्रह करनेवाले, ९९० नित्यसुन्दर: - सतत मनोहर, ९९१ वैयाघ्रधुर्य: - व्याघ्रचर्मधारी, ९९२ धात्रीश: - ब्रह्माजी के स्वामी, ९९३ शाकल्य: - शाकल्य ऋषिरूप, ९९४ शर्वरीपति: - रात्रि के स्वामी चन्द्रमारूप ।।१३१।।
परमार्थगुरुर्दत्त: सूरिराश्रितवत्सल:।
सोमो रसज्ञो रसद: सर्वसत्त्वावलम्बन: ।।१३२।।
९९५ परमार्थगुरुर्दत्त: सूरि: - परमार्थ-तत्त्व का उपदेश देनेवाले ज्ञानी गुरु दत्तात्रेयरूप, ९९६ आश्रितवत्सल: - शरणागतों पर दया करनेवाले, ९९७ सोम: - उमासहित, ९९८ रसज्ञ: - भक्तिरस के ज्ञाता, ९९९ रसद: - प्रेमरस प्रदान करनेवाले, १००० सर्वसत्वावलम्बन: - समस्त प्राणियों को सहारा देनेवाले ।।१३२।।
भगवान् श्रीहरि प्रतिदिन सहस्त्र नामों द्वारा भगवान् शिव की स्तुति, सहस्त्र कमलों द्वारा उनका पूजन एवं प्रार्थना किया करते थे। एक दिन भगवान् सर्वदेवेश्वर भगवान् शिव की लीला से एक कमल कम हो जाने पर भगवान् विष्णु ने अपना कमलोपम नेत्र ही चढ़ा दिया। इस तरह उनसे पूजित एवं प्रसन्न हो शिव ने उन्हें चक्र दिया और इस प्रकार कहा- 'हरे! सब प्रकार के अनर्थों की शान्ति के लिये तुम्हें मेरे स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। अनेकानेक दुःखों का नाश करने के लिये इस सहस्रनाम का पाठ करते रहना चाहिये तथा समस्त मनोरथों की सिद्धि के लिये सदा मेरे इस चक्र को प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये, यह सभी चक्रों में उत्तम है। दूसरे भी जो लोग प्रतिदिन इस सहस्रनाम का पाठ करेंगे या करायेंगे, उन्हें स्वप्न में भी कोई दुःख नहीं प्राप्त होगा। राजाओं की ओर से संकट प्राप्त होने पर यदि मनुष्य सांगोपांग विधिपूर्वक इस सहस्रनामस्तोत्र का सौ बार पाठ करे तो निश्चय ही कल्याण का भागी होता है। यह उत्तम स्तोत्र रोग का नाशक, विद्या और धन देनेवाला, सम्पूर्ण अभीष्ट की प्राप्ति करानेवाला, पुण्यजनक तथा सदा ही शिवभक्ति देनेवाला है। जिस फल के उद्देश्य से मनुष्य यहाँ इस श्रेष्ठ स्तोत्र का पाठ करेंगे, उसे निस्संदेह प्राप्त कर लेंगे। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर मेरी पूजा के पश्चात् मेरे सामने इसका पाठ करता है सिद्धि उससे दूर नहीं रहती। उसे इस लोक में सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली सिद्धि पूर्णतया प्राप्त होती है और अन्त में वह सायुज्य मोक्ष का भागी होता है इसमें संशय नहीं है।'
सूतजी कहते हैं - मुनीश्वरो। ऐसा कहकर सर्वदेवेश्वर भगवान् रुद्र श्रीहरि के अंग का स्पर्श किये और उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। भगवान् विष्णु भी शंकरजी के वचन से तथा उस शुभ चक्र को पा जाने से मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे प्रतिदिन शम्भु के ध्यानपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करने लगे। उन्होंने अपने भक्तों को भी इसका उपदेश दिया जो पाठकों और श्रोताओं के पाप को हर लेनेवाला है।
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