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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘अपनी मालकिन से कहना कि मैं उस चित्र को देखना चाहता हूँ।’’

‘‘आप तो मुझे बाल्यकाल से देखते रहे हैं। तब तो मैं इससे भी अधिक सुन्दर थी।’’

इस पर चौधरी उसकी उस समय की रूपरेखा स्मरण करने लगा...आँखें मूँदकर उसने अपनी पत्नी का वह दृश्य स्मरण किया, जो उसने नदी के किनारे निर्वस्त्र देखा था। उसे देखते ही वह उससे विवाह की इच्छा करने लगा था। उसके साथ उसका एक मित्र ‘सौतकी’ भी खड़ा था। मित्र को तो सोना में किसी प्रकार का आकर्षण प्रतीत नहीं हुआ था। वह सात-आठ वर्ष की बालिका-मात्र थी। वहाँ कुछ अन्य लड़कियाँ और लड़के भी स्नान कर रहे थे। सौतकी ने धनिक से पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो?’

‘उस लड़की को।’

‘ओह, गारू की लड़की सोना को?’

‘हाँ।’

‘ऊँह, मैं तो इससे विवाह नहीं कर सकता।’

‘तो तुम किससे करोगे?’

‘किसी दिन बताऊँगा। यह तो हड्डियों का ढाँचा है।’

‘मुझे तो भली प्रतीत हो रही है।’

‘यह तो अभी विवाह योग्य हो भी नहीं रही, किन्तु मेरा निर्वाचन पूर्ण है।’

‘कहाँ है?’’

‘यहाँ नहीं है।’

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