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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘मैं चाहता हूँ कि अब सब कबीले वाले परस्पर लड़ना छोड़ दें और आपस में एक-दूसरे की सहायता करें तो इन नगर वालों की भाँति हम भी धनी और शक्तिशाली हो सकते हैं।’’

चौधरी इस नीति की बातों को समझ नहीं सकता था। उसने कहा, ‘‘क्या इससे हम अंग्रेज़ों और क्रिस्तानों से लड़कर जीत सकेंगे?’’

‘‘नहीं, लड़ने की आवश्यकता नहीं! आपस में नहीं लड़ेंगे तो हम जहाँ चाहेंगे, जा सकेंगे और व्यापार कर सकेंगे।’’

यह समझ कि चीतू जो कहता है, ठीक भी हो सकता है, धनिक चुप रहा। उसने अपने विषय में बात चला दी और पूछने लगा, ‘‘क्या सोना छूट सकती है?’’

‘‘तुम उसको घर पर रखोगे?’’

‘‘मैं उसको मार डालूँगा। वह अनिष्ठावान है।’’

‘‘तो फिर तुम्हारे पास क्यों आएगी?’’

चौधरी इस बात को समझ नहीं सका। उसने कहा, ‘‘वह मेरी पत्नी है, मैं उसको मार सकता हूँ। ऐसा मैंने देवता के सामने वचन दिया है।’’

‘‘किस देवता के सामने?’’

‘विवाह के समय अपनी बस्ती के देवता के सामने।’’

‘‘देवता तो कुछ कहता ही नहीं था। वह तो साधु पुरोहित कहलाता था। अब जब से पंचायत पुरोहित बनी है, देवता ऐसी कोई बात नहीं कहता।’’

‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि वह रूठ गया है।’’

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